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आराधना कथाकोश
एक धीवर रहा करता था । अपने कन्धों पर एक बड़ा भारी जाल लटकाए हुए एक दिन वह मछलियाँ पकड़ने के लिए शिप्रा नदीकी ओर जा रहा था । रास्ते में उसे यशोधर नामक मुनिराज के दर्शन हुए। उस समय अनेक राजामहाराजा आदि उनके पवित्र चरणोंकी पर्युपासना कर रहे थे, मुनिराज जैन सिद्धान्त के मूल रहस्य स्याद्वाद के बहुत अच्छे विद्वान् थे, जीवमात्रका उद्धार करने हेतु वे सदा कमर कसे तैयार रहते थे, जीवमात्रका उपकार करना ही एक मात्र उनका व्रत था, धर्मोपदेश रूपी अमृतसे सारे संसारको उन्होंने सन्तुष्ट कर दिया था, अपने वचनरूपी प्रखर किरणोंके तेजसे ' उन्होंने मिथ्यात्वरूपी गाढान्धकारको नष्ट कर दिया था, उनके पास वस्त्र वगैरह कुछ नहीं थे, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् - चारित्ररूपी इन तीन मौलिक रत्नोंसे वे अवश्य अलंकृत थे । मुनिराजको देखते ही उसके कोई ऐसा पुण्यका उदय आया, जिससे उसके हृदय में कोमलताने अधिकार कर लिया । अपने कन्धे परसे जाल हटाकर वह मुनिराजके समीप पहुँचा, बहुत भक्तिपूर्वक उनके चरणोंमें प्रणाम कर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामी ! कामरूपी हाथीको नष्ट करनेवाले हे केसरी !! मुझे भी कोई ऐसा व्रत दीजिए, जिससे मेरा जीवन सफल हो। ऐसी प्रार्थना कर विनय विनीत मस्तकसे वह मुनिराजके चरणों में बैठ गया। मुनिराजने उसकी ओर देखकर विचार किया कि देखो ! कैसे आज इस महा हिंसक परिणाम कोमल हो गये हैं और इसकी मनोवृत्ति व्रत लेने की हुई है । सत्य है
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युक्तं स्यात्प्राणिनां भावि शुभाशुभनिभं मनः ।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-आगे जैसा अच्छा या बुरा होना होता है, जीवोंका मन भी उसी अनुसार पवित्र या अपवित्र बन जाता है, अर्थात् जिसका भविष्यत् अच्छा होता है, उसका मन पवित्र हो जाता है और जिसका बुरा होन हार होता है उसका मन भी बुरा हो जाता है । इसके बाद मुनिराजने अवधिज्ञान द्वारा मृगसेन के भावी जीवन पर जब विचार किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि इसकी आयु अब बहुत कम रह गई है । यह देख उन्होंने करुणाबुद्धिसे उसे समझाया कि हे भव्य ! मैं तुझे एक बात कहता हूँ, तूं जब तक जीए तब तक उसका पालन करना । वह यह कि तेरे जालमें पहली बार जो मछली आये उसे तू छोड़ देना और इस तरह जब तक तेरे हाथसे मरे हुए जीवका मांस तुझे प्राप्त न हो, तब तक तू पापसे मुक्त ही
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