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धनदत्त राजाको कथा
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उसी तरह पापी लोग पवित्र जिनधर्मके प्रभावको कभी नहीं रोक सकते । उक्त घटनाको देखकर राजा वगैरहने जिनधर्मकी खूब प्रशंसा को और श्रावक धर्म स्वीकार कर वे उपासक बन गये ।
इस प्रकार निर्मल और देवादिके द्वारा पूज्य जिनशासन का प्रभाव देखकर भव्य पुरुषोंको उचित है कि वे निर्भ्रान्ति होकर सुखके खजाने और स्वर्ग - मोक्षके देनेवाले पवित्र जिनधर्मकी ओर अपनी निर्मल और मनोवांछितकी देनेवाली बुद्धिको लगावें ।
१८. ब्रह्मदत्तकी कथा
परम भक्ति से संसार पूज्य जिन भगवान्को नमस्कार कर मैं ब्रह्मदत्तकी कथा लिखता हूँ। वह इसलिये कि सत्पुरुषोंको इसके द्वारा कुछ शिक्षा मिले ।
कांपिल्य नामक नगर में एक ब्रह्मरथ नामका राजा रहता था । उसकी रानीका नाम था रामिली । वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजाको प्राणोंसे भी कहीं प्यारी थी, बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इसीके पुत्र थे 1 वे छह खण्ड पृथ्वीको अपने वश करके सुखपूर्वक अपना राज्य शासनका काम करते थे ।
एक दिन राजा भोजन करनेको बैठे उस समय उनके विजयसेन नामके रसोइयेने उन्हें खीर परौसी । पर वह बहुत गरम थी, इसलिये राजा उसे खान सके । उसे इतनी गरम देखकर राजा रसोइयेपर बहुत गुस्सा हुए। गुस्से में आकर उन्होंने खीरके उसी बर्तनको रसोइयेके सिरपर दे मारा। उसका सिर सब जल गया। साथ ही वह मर गया । हाय ! ऐसे क्रोधको धिक्कार है, जिससे मनुष्य अपना हिताहित न देखकर बड़ेबड़े अनर्थ कर बैठता है और फिर अनन्त कालतक कुगतियोंमें दुःख भोगता रहता है ।
रसोइया बड़े दुःखसे मरा सही, पर उसके परिणाम उस समय भो शान्त रहे । वह मरकर लवण समुद्रान्तर्गत विशालरत्न नामक द्वीपमें व्यन्तर देव हुआ । विभंगावधिज्ञानसे वह अपने पूर्वभवकी कष्ट कथा
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