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आराधना कथाकोश समझाकर संघश्रीने कहा-अब तुम कभी राजसभामें नहीं जाना और जाना भी पड़े तो यह आजका हाल राजासे नहीं कहना। कारण वह जैनी है । सो बुद्धधर्मपर स्वभावहीसे उसे प्रेम नहीं होगा। इसलिए क्या मालम कब वह बुद्धधर्मका अनिष्ट करनेको तैयार हो जाय ? बेचारा श्रीवन्दक फिर संघश्रीकी चिकनी चपड़ो बातोंमें आ गया। उसने श्रावक धर्मको भी उसी समय जलाञ्जलि दे दी । बहुत ठीक कहा गया है
स्वयं ये पापिनो लोके परं कुर्वन्ति पापिनम् । यथा संतप्तमानोसौ दहत्यग्निर्न संशयः ।।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-जो स्वयं पापी होते हैं वे औरोंको भी पापी बना डालते हैं । यह उनका स्वभाव ही होता है। जैसे अग्नि स्वयं भी गरम होती है और दूसरोंको भी जला देती है।
दूसरे दिन धनदत्तने राज्यसभामें बड़े आनन्द और धर्मप्रेमके साथ चारणमुनिका हाल सुनाया। उनमें प्रायः लोगोंको, जो कि जैन नहीं थे, बहुत आश्चर्य हुआ। उनका विश्वास राजाके कथनपर नहीं जमा। सब आश्चर्य भरी दृष्टिसे राजाके मुंहकी ओर देखने लगे । राजाको जान पड़ा कि मेरे कहनेपर लोगोंको विश्वास नहीं हुआ। तब उन्होंने अपनी गंभीरताको हँसीके रूपमें परिवर्तित कर झटसे कहा, हाँ मैं यह कहना तो भूल ही गया कि उस समय हमारे मंत्रो महाशय भी मेरे पास ही थे। यह कहकर ही उन्होंने मंत्रीपर नजर दौड़ाई पर वे उन्हें नहीं दीख पड़े। तब राजाने उसी समय नौकरोंको भेजकर श्रोवन्दकको बुलवाया। उसके आते ही राजाने अपने कथनकी सत्यता प्रमाणित करने के लिये उससे कहामंत्रीजी, कल दोपहरका हाल तो इन सबको सुनाइये कि वे चारणमुनि कैसे थे ? तब बौद्धगुरुका बहकाया हुआ पापी श्रीवन्दक बोल उठा कि महाराज, मैंने तो उन्हें नहीं देखा और न यह संभव ही है कि आकाशमें कोई चल सके ? पापी श्रीवन्दकके मुंहसे उक्त वाक्योंका निकलना था कि उसी समय उसको दोनों आँखें मुनिनिन्दा के तोत्र पापके उदयसे फूट गईं। सच है
प्रभावो जिनधर्मस्य सूर्यस्येव जगत्त्रये । नैव संछाद्यते केन घूकप्रायेण पापिना ।।
-ब्रह्म नेमिदत्त जैसे संसारमें फैले हुए सूर्यके प्रभावको उल्लू नहीं रोक सकता, ठोक
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