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आराधना कथाकोश
बनाये हुए ग्रन्थके चवालीस अध्याय हैं और उसकी श्लोकसंख्या साढ़े तीन हजार है। उससे संसारका बहुत उपकार हुआ ।
वह आराधना ग्रन्थ और समन्तभद्राचार्य तथा शिवकोटी मुनिराज मुझे सुखके देनेवाले हों। तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परम रत्नोंके समुद्र और कामरूपी प्रचंड बलवान् हाथीके नष्ट करनेको सिंह समान विद्यानन्दो गुरु और छहों शास्त्रोंके अपूर्व विद्वान् तथा श्रुतज्ञानके समुद्र श्रोमल्लिभूषण मुनि मुझे मोक्षश्री प्रदान करें।
५. संजयन्त मुनिकी कथा सुखके देनेवाले श्रीजिनभगवान्के चरण कमलोंको नमस्कारकर श्रीसंजयन्त मुनिराजको कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक्तपका उद्योत किया था। __सुमेरुके पश्चिमकी ओर विदेहके अन्तर्गत गन्धमालिनो नामका देश है। उसकी प्रधान राजधानी वीतशोकपुर है। जिस समयकी बात हम लिख रहे हैं उस समय उसके राजा वैजयन्त थे। उनकी महारानीका नाम भव्यश्री था। उनके दो पुत्र थे। उनके नाम थे संजयन्त और जयन्त ।
एक दिनकी बात है कि बिजली गिरनेसे महाराज वैजयन्तका प्रधान हाथी मर गया । यह देख उन्हें संसारसे बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने राज्य छोड़नेका निश्चयकर अपने दोनों पूत्रोंको बुलाया और उन्हें राज्यभार सौंपना चाहा; तब दोनों भाइयोंने उनसे कहा-पिताजी, राज्य तो संसारके बढ़ानेका कारण है, इससे तो उल्टा हमें सूखकी जगह दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये हम तो इसे नहीं लेते। आप भी तो इसीलिये छोड़ते हैं न ? कि यह बुरा है, पापका कारण है। इसोलिये हमारा तो विश्वास है कि बुद्धिमानोंको, आत्म हितके चाहनेवालोंको, राज्य सरीखी झंझटोंको शिरपर उठाकर अपनी स्वाभाविक शान्तिको नष्ट नहीं करना चाहिये। यहो विचारकर हम राज्य लेना उचित नहीं समझते। बल्कि हम तो आपके साथ हो साधु बनकर अपना आत्महित करेंगे।
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