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विष्णुकुमार मुनिकी कथा घोर अनर्थ आजतक किया है ? हाय ! धर्मके अवतार, परम शान्त और किसीसे कुछ लेते देते नहीं, उन मुनियोंपर यह अत्याचार ? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओंके राज्यमें ? खेद ! भाई, राजाओंका धर्म तो यह कहा गया है कि वे सज्जनोंकी, धर्मात्माओंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। पर आप तो बिलकुल इससे उलटा कर रहे हैं। समझते हो, साधुओंका सताना ठीक नहीं। ठण्डा जल भी गरम होकर शरीरको जला डालता है। इसलिये जबतक कोई आपत्ति तुमपर न आवे, उसके पहले ही उपसर्गकी शान्ति करवा दीजिये। ___ अपने भाईका उपदेश सुनकर पद्मराज बोले- मुनिराज, मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब तो मैं बिलकुल विवश हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकता। सात दिनतक जैसा कुछ ये करेंगे वह सब मुझे सहना होगा। क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ। अब तो आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियोंका उपसर्ग दूर कीजिये। आप इसके लिये समर्थ भी हैं और सब जानते हैं। उसमें मेरा दखल देना तो ऐसा है जैसा सूर्यको दीपक दिखलाना। आप अब जाइये और शीघ्रता कीजिये । विलम्ब करना उचित नहीं ।
विष्णुकुमारमुनिने विक्रियाऋद्धिके प्रभावसे बावन ब्राह्मणका वेष बनाया और बड़ी मधुरतासे वेदध्वनिका उच्चारण करते हुए वे यज्ञमंडपमें पहुँचे । उनका सुन्दर स्वरूप और मनोहर वेदोच्चार सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए । बलि तो उनपर इतना मुग्ध हुआ कि उसके आनन्दका कुछ पार नहीं रहा। उसने बड़ी प्रसन्नतासे उनसे कहा-महाराज, आपने पधारकर मेरे यज्ञकी अपूर्व शोभा कर दी। मैं बहुत खुश हुआ। आपको जो इच्छा हो, माँगिये । इस समय मैं सब कुछ देनेको समर्थ हूँ।
विष्णुकुमार बोले-मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे अपनी जैसी कुछ . स्थिति है, उसमें सन्तोष है । मुझे धन-दौलतकी कुछ आवश्यकता नहीं। पर आपका जब इतना आग्रह है, तो आपको असन्तुष्ट करना भी मैं नहीं चाहता। मुझे केवल तीन पैंड पृथ्वीको आवश्यकता है। यदि आप कृपा करके उतनी भूमि मुझे प्रदान कर देंगे तो मैं उससे टूटी-फूटी झोंपड़ी बनाकर रह सकूँगा। स्थानकी निराकुलतासे मैं अपना समय वेदाध्ययनादिमें बड़ी अच्छी तरह बिता सकूँगा। बस, इसके सिवा मुझे और कुछ आशा नहीं है।
विष्णुकुमारकी यह तुच्छ याचना सुनकर और-और ब्राह्मणोंको उनकी
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