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वज्रकुमारको कथा उसकी आँखमें गिर गया। उसके दुःखसे उसका चित्त चंचल हो उठा। उससे विद्या सिद्ध होने में उसके लिए बड़ो कठिनता आ उपस्थित हुई। इसी समय वज्रकुमार इधर आ निकला। उसे ध्यानसे विचलित देखकर उसने उसकी आँखमेंसे काँटा निकाल दिया। पवनवेगा स्वस्थ होकर फिर मंत्र साधनमें तत्पर हुई। मंत्रयोग पूरा होनेपर उसे विद्या सिद्ध हो गई। वह सब उपकार वज्रकुमारका समझकर उसके पास आई और उससे बोली-आपने मेरा बहुत उपकार किया है । ऐसे समय यदि आप उधर नहीं आते तो कभी संभव नहीं था, कि मुझ विद्या सिद्ध होती। इसका बदला में एक क्षुद्र बालिका क्या चुका सकती हैं, पर यह जीवन आपके समर्पण कर आपकी चरणदासी बनना चाहती हैं। मैंने संकल्प कर लिया है कि इस जीवनमें आपके सिवा किसो को मैं अपने पवित्र हृदयमें स्थान न दूंगी। मुझे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिये । यह कहकर वह सतृष्ण नयनोंसे वज्रकुमारकी ओर देखने लगी। वज्रकूमारने मुस्कुराकर उसके प्रेमोपहारको बड़े आदरके साथ ग्रहण किया। दोनों वहाँसे विदा होकर अपने-अपने घर गये। शुभ दिनमें गरुड़वेगने पवनवेगाका परिणय संस्कार वज्रकुमारके साथ कर दिया। दोनों दम्पति सुखसे रहने लगे।
एक दिन वज्रकुमारको मालूम हो गया कि मेरे पिता थे तो राजा, पर उन्हें उनके छोटे भाईने लड़ झगड़कर अपने राज्यसे निकाल दिया है । यह देख उसे अपने काकापर बड़ा क्रोध आया। वह पिताके बहुत कुछ मना करनेपर भी कुछ सेना और अपनी पत्नीकी विद्याको लेकर उसी समय अमरावतीपर जा चढ़ा। पुरन्दरदेषको इस चढ़ाईका हाल कुछ मालूम नहीं हुआ था, इसलिये वह बातकी बातमें पराजित कर बाँध लिया गया। राज्यसिंहासन पीछा दिवाकरदेवके अधिकारमें आया। सच है "सुपुत्रः कुलदीपकः" अर्थात् सुपुत्रसे कुलकी उन्नति ही होती है । इस . वीर वृत्तान्तसे वज्रकुमार बहुत प्रसिद्ध हो गया। अच्छे-अच्छे शूरवीर उसका नाम सुनकर काँपने लगे।
इसी समय दिवाकरदेवकी प्रिया जयश्रीके भी एक औरस पुत्र उत्पन्न हो गया । अब उसे वज्रकुमासे डाह होने लगी। उसे एक भ्रम सा हो गया कि इसके सामने मेरे पुत्रको राज्य कैसे मिलेगा ? खैर, यह भी मान लं कि मेरे आग्रहसे प्राणनाथ अपने ही पुत्रको राज्य दे भी दें तो यह क्यों उसे देने देगा ? ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जोआश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् ।
-वादीभसिंह
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