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आराधना कथाकोश
तो मुनिराजने स्वयं प्रेरणा की है, इसलिये रानी उर्विलाको सहायता देना तो उन्हें आवश्यक ही था । विद्याधरोंने पहुंचकर बुद्धदासीको बहुत समझाया और वहा जो पुरानी रीति है उसे ही पहले होने देना अच्छा है । पर बुद्धदासीको तो अभिमान आ रहा था, इसलिये वह क्यों मानने चली ? विद्याधरोंने सीधेपनसे अपना कार्य होता हुआ न देखकर बुद्धदासीके नियुक्त किये हुए सिपाहियोंसे लड़ना शुरू किया और बातकी बातमें उन्हें भगाकर बड़े उत्सव और आनन्दके साथ उविला रानीका रथ निकलवा दिया । रथके निर्विघ्न निकलनेसे सबको बहुत आनन्द हुआ | जैनधर्मकी भी खूब प्रभावना हुई । बहुतोंने मिथ्यात्व छोड़कर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया । बुद्धदासी और राजापर भी इस प्रभावनाका खूब प्रभाव पड़ा । उन्होंने भी शुद्धान्तःकरणसे जैनधर्म स्वीकार किया ।
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जिस प्रकार श्रीवज्रकुमार मुनिराजने धर्मप्रेमके वश होकर जैनधर्मकी प्रभावना करवाई उसी तरह और धर्मात्मा पुरुषों को भी संसारका उपकार करनेवाली और स्वर्गसुखकी देनेवाली धर्म प्रभावना करना चाहिये । जो भव्य पुरुष, प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार, रथयात्रा, विद्यादान, आहारदान, अभयदान आदि द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि होकर त्रिलोक पूज्य होते हैं और अन्तमें मोक्षसुख प्राप्त करते हैं ।
धर्मप्रेमी श्रीवत्रकुमार मुनि मेरी बुद्धिको सदा जैनधर्म में दृढ़ रक्खें, जिसके द्वारा मैं भी कल्याण पथपर चलकर अपना अन्तिमसाध्य मोक्ष प्राप्त कर सकूं ।
श्रीमल्लिभूषण गुरु मुझे मंगल प्रदान करें, वे मूल संघके प्रधान शारदागच्छ में हुए हैं । वे ज्ञानके समुद्र हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नोंसे अलंकृत हैं । मैं उनकी भक्तिपूर्वक आराधना करता हूँ ।
१४. नागदत्त मुनिकी कथा
मोक्षराज्यके अधीश्वर श्रीपंचपरमगुरुको नमस्कार कर श्रीनागदत्त • मुनिका सुन्दर चरित में लिखता हूँ ।
मगधदेशको प्रसिद्ध राजधानी राजगृहमें प्रजापाल नामके राजा हैं ।
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