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नागदत्त मुनिकी कथा दूसरे सर्पको पिटारेमेंसे निकाल बाहर कर दिया । सर्प निकलते ही फुकार मारना शुरू किया। वह इतना जहरीला था कि उसके साँसकी हवा हीसे लोगोंके सिर घमने लगते थे। जैसे ही नागदत्त उसे हाथमें पकड़तेको उसकी ओर बढ़ा कि सर्पने उसे बड़े जोरसे काट खाया । सर्पका काटना था कि नागदत्त उसी समय चक्कर खाकर धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और अचेत हो गया। उसकी यह दशा देखकर हाहाकार मच गया। सबकी आँखोंसे आँसूकी धारा बह चली। राजाने उसी समय नौकरोंको दौड़ाकर सर्पका विष उतारनेवालोंको बुलवाया। बहुतसे मांत्रिक-तांत्रिक इकटे हुए। सबने अपनी-अपनी करनी में कोई बात उठा नहीं रक्खो। पर किसोका किया कुछ नहीं हुआ। सबने राजाको यही कहा कि महाराज, युवराजको तो कालसर्पने काटा है, अब ये नहीं जी सकेंगे। राजा बड़े निराश हुए। उन्होंने सर्पवालेसे यह कह कर, कि यदि तू इसे जिला देगा तो मैं तुझ अपना आधा राज्य दे दूंगा, नागदत्तको उसीके सुपुर्द कर दिया। प्रियधर्म तब बोला-महाराज, इसे काटा तो है कालसर्पने, और इसका जी जाना भी असंभव है, पर मेरा कहा मानकर मत निकालिये यदि यह जी जाय तो आप इसे मुनि हो जानेको आज्ञा दें तो, मैं भी एक बार इसके जिलानेका यत्न. कर देखें।
राजाने कहा-मैं इसे भी स्वोकार करता हूँ। तुम इसे किसी तरह जिला दो, यही मुझ इष्ट है ।
इसके बाद प्रियधर्मने कुछ मन्त्र पढ़ पढ़ाकर उसे जिन्दा कर दिया। जैसे मिथ्यात्वरूपो विषसे अचेत हए मनुष्यों को परोपकारी मुनिराज अपना स्वरूप प्राप्त करा देते हैं। जैसे ही नागदत्त सचेत होकर उठा और उसे राजाने अपनी प्रतिज्ञा कह सुनाई । वह उससे बहुत प्रसन्न हुआ। पश्चात् एक क्षणभर हो वह वहाँ न ठहर कर वनको आर रवाना हो गया और यमधर मुनिराजके पास पहुँचकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उसे दीक्षित हो जानेपर प्रियधर्म, जो गारुड़िका वेष लेकर स्वर्गसे नागदत्तके सम्बोधनेको आया था, उसे सब हाल कहकर और अन्तमें नमस्कार कर पीछा स्वर्ग चला गया।
मुनि बनकर नागदत्त खूब तपश्चर्या करने लगे और अपने चारित्रको दिनपर दिन निर्मल करके अन्तमें जिनकल्पी मुनि हो गये । अर्थात् जिनभगवान्की तरह अब वे अकेले ही विहार करने लगे। एक दिन वे तीर्थयात्रा करते हुए एक भयानक वनीमें निकल आये। वहां चोरोंका अड्डा
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