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वज्रकुमारको कथा
पड़ता है । क्योंकि उसके बिना मोक्ष होता ही नहीं । जन्मजरामरणका दुःख बिना मुनिधर्मके कभी नहीं छूटता । इसमें भी एक विशेषता है। वह यह कि जितने मुनि होते हैं, वे सब मोक्ष में ही जाते होंगे ऐसा नहीं समझना चाहिये । उसमें परिणामोंपर सब बात निर्भर है । जिसके जितनेजितने परिणाम उन्नत होते जाँयगे और राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आत्मशत्रु नष्ट होकर अपने स्वभावकी प्राप्ति होती जायगी वह उतना ही अन्तिम साध्य मोक्षके पास पहुँचता जायगा । पर यह पूर्ण रीति से ध्यान में रखना चाहिए कि मोक्ष होगा तो मुनिधर्महीसे ।
इस प्रकार श्रावक और मुनिधर्म तथा उनकी विशेषतायें सुनकर सोमदत्तको मुनिधर्म ही बहुत पसन्द पड़ा । उसने अत्यन्त वैराग्यके वश होकर मुनिधर्मकी ही दीक्षा ग्रहण की, जो कि सब पापोंकी नाश करनेवाली है । साधु बनकर गुरुके पास उसने खूब शास्त्राभ्यास किया । सब शास्त्रोंमें उसने बहुत योग्यता प्राप्त कर ली । इसके बाद सोमदत्त मुनिराज नाभिगिरी नामक पर्वतपर जाकर तपश्चर्या करने लगे और परीषह सहन द्वारा अपनी आत्मशक्तिको बढ़ाने लगे ।
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इधर यज्ञदत्ताके समय पाकर पुत्र हुआ । उसकी दिव्य सुन्दरता और तेजको देखकर यज्ञदत्ता बड़ी प्रसन्न हुई । एक दिन उसे किसीके द्वारा अपने स्वामीके समाचार मिले। उसने वह हाल अपने और घरके लोगोंसे कहा और उनके पास चलनेके लिये उनसे आग्रह किया । उन्हें साथ लेकर यज्ञदत्ता नाभिगिरीपर पहुँची। मुनि इस समय तापसयोगसे अर्थात् सूर्यके सामने मुँह किये ध्यान कर रहे थे । उन्हें मुनिवेषमें देखकर यज्ञदत्ताके क्रोधका कुछ ठिकाना नहीं रहा उसने गर्जकर कहा- दुष्ट ! पापी !! यदि तुझे ऐसा करना था मेरो जिन्दगी बिगाड़ना थी, तो पहलेहीसे मुझे न व्याहता ? बतला तो अब मैं किसके पास जाकर रहूँ ? निर्दय ! तुझे दया भी न आई जो मुझे निराश्रम छोड़कर तप करनेको यहाँ चला आया ? अब इस बच्चे का पालन कौन करेगा ? जरा कह तो सहो ! मुझसे इसका पालन नहीं होता । तू ही इसे लेकर पाल । यह कहकर निर्दयी यज्ञदत्ता बेचारे निर्दोष बालकको मुनिके पाँवों में पटक कर घर चली गई । उस पापिनी को अपने हृदय के टुकड़ेपर इतनी भी दया नहीं आई कि मैं सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र जीवोंसे भरे हुए ऐसे भयंकर पर्वतपर उसे कैसे छोड़ जाती हूँ ? उसको कौन रक्षा करेगा ? सच तो यह है- क्रोधके वश हो स्त्रियाँ क्या नहीं करतीं ?
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