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आराधना कथाकोश - इधर तो यज्ञदत्ता पुत्रको मुनिके पास छोड़कर घरपर गई और इतने हीमें दिवाकरदेव नामका एक विद्याधर इधर आ निकला। वह अमरावतीका राजा था। पर भाई-भाईमें लड़ाई हो जानेसे उसके छोटे भाई पुरसुन्दरने उसे युद्ध में पराजित कर देशसे निकाल दिया था । सो वह अपनी स्त्रोको साथ लेकर तीर्थयात्राके लिये चल दिया । यात्रा करता हुआ वह नाभिपर्वतकी ओर आ निकला । पर्वतपर मुनिराजको देखकर उनको वन्दनाके लिये नीचे उतरा। उसकी दृष्टि उस खेलते हए तेजस्वी बालकके प्रसन्न मुखकमलपर पड़ी ! बालक को भाग्यशाली समझकर उसने अपनी गोदमें उठा लिया और बड़ो प्रसन्नताके साथ उसे अपनी प्रियाको सौंपकर कहा-प्रिये, यह कोई बड़ा पुण्यपुरुष है। आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ जो हमें अनयास ऐसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। उसकी स्त्री भी बच्चेको पाकर बहुत खुश हुई । उसने बड़े प्रेमके साथ उसे अपनी छातीसे लगाया और अपनेको कृतार्थ माना । बालक होनहार था। उसके हाथों में वज्रका चिह्न था। उसका सारा शरी शुभ लक्षणोंसे विभूषित था । वज्रका चिह्न देखकर विद्याधरमहिलाने उसका नाम भी वज्रकुमार रख दिया। इसके बाद वे दम्पत्ति मुनिको प्रणाम कर अपने घरपर लौट आये। यज्ञदत्ता तो अपने औरस पूत्रको भी छोड़कर चली आई, पर जो भाग्यवान् होता है उसका कोई न कोई रक्षक बनकर आ ही जाता है । बहुत ठोक लिखा हैप्रकृष्टपूर्वपुण्यानां न हि कष्टं जगत्त्रये !
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-पुण्यवानोंको कहीं कष्ट प्राप्त नहीं होता। विद्याधरके घरपर पहुंच कर वज्रकुमार द्वितीयाके चन्द्रमाकी तरह बढ़ने लगा और अपनी बाललीलाओंसे सबको आनन्द देने लगा जो उसे देखता वही उसकी स्वर्गीय सुन्दरतापर मुग्ध हो उठता था।
दिवाकरदेवके सम्बन्धसे वज्रकुमारका मामा कनकपुरीका राजा विमलवाहन हुआ। अपने मामाके यहाँ रहकर वज्रकुमारने खूब शास्त्राभ्यास किया। छोटी ही उमरमें वह एक प्रसिद्ध विद्वान् बन गया। उसकी बुद्धिको देखकर विद्याधर बड़ा आश्चर्य करने लगे।
एक दिन वज्रकुमार ह्रीमंतपर्वतपर प्रकृति की शोभा देखने को गया हुआ था । वहींपर एक गरुड़वेग विद्याधरकी पवनवेगा नामकी पुत्री विद्या साध रही थी। सो विद्या साधते-साधते भाग्यसे एक काँटा हवासे उड़कर
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