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आराधना कथाकोश
बुद्धिपर बड़ा खेद हुआ । उन्होंने कहा भी कृपानाथ, आपको थोड़ में ही सन्तोष था, तब भी आपका यह कर्त्तव्य तो था कि आप बहुत कुछ माँगकर अपने जाति भाइयोंका ही उपकार करते ? उसमें आपका बिगड़ क्या जाता था ?
बलिने भी उन्हें बहुत समझाया और कहा कि आपने तो कुछ भी नहीं माँगा । मैं तो यह समझा था कि आप अपनी इच्छासे माँगते हैं, इसलिए जो कुछ माँगेंगे वह अच्छा ही माँगेंगे; परन्तु आपने तो मुझे बहुत ही हताश किया। यदि आप मेरे वैभव और मेरी शक्तिके अनुसार माँगते तो मुझे बहुत सन्तोष होता । महाराज, अब भी आप चाहें तो और भी अपनी इच्छानुसार माँग सकते हैं । मैं देनेको प्रस्तुत हूँ ।
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विष्णुकुमार बोले- नहीं, मैंने जो कुछ माँगा है, मेरे लिए वही बहुत है | अधिक मुझे चाह नहीं । आपको देना ही है तो और बहुत से ब्राह्मण मौजूद हैं; उन्हें दीजिए । बलिने अगत्या कहा कि जैसी आपको इच्छा । आप अपने पाँवों से भूमि माप लीजिए । यह कहकर उसने हाथमें जल लिया और संकल्प कर उसे विष्णुकुमारके हाथमें छोड़ दिया । संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पृथ्वी मापना शुरू की। पहला पाँव उन्होंने सुमेरु पर्वतपर रक्खा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वतपर, अब तीसरा पाँव रखनेको जगह नहीं । उसे वे कहाँ रक्खें ? उनके इस प्रभावसे सारी पृथ्वी काँप उठी, सब पर्वत चल गए, समुद्रोंने मर्यादा तोड़ दी, देवों और ग्रहों के विमान एकसे एक टकराने लगे और देवगण आश्चर्य के मारे भौंचकसे रह गए । वे सब विष्णुकुमार के पास आये और बलिको बाँधकर बोले- प्रभो, क्षमा कीजिये ! क्षमा कीजिये !! यह सब दुष्कर्म इसी पापीका है । यह आपके सामने उपस्थित है । बलिने मुनिराज के पाँवों में गिरकर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया और अपने दुष्कर्मपर बहुत पश्चात्ताप किया ।
विष्णुकुमार मुनिने संघका उपद्रव दूर किया । सबको शान्ति हुई । राजा और चारों मंत्री तथा प्रजाके सब लोग बड़ी भक्तिके साथ अकम्पनाचार्यकी वन्दना करनेको गये । उनके पाँवों में पड़कर राजा और मंत्रियोंने अपना अपराध उनसे क्षमा कराया और उसो दिनसे मिथ्यात्वमत छोड़कर सब अहिंसामयी पवित्र जिनशासन के उपासक बने ।
देवोंने प्रसन्न होकर विष्णुकुमारकी पूजनके लिये तीन बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय वीणायें प्रदान कीं, जिनके द्वारा उनका गुणानुवाद गा-गाकर लोग बहुत पुण्य उत्पन्न करेंगे । जैसा विष्णुकुमारने वात्सल्य अंगका पालन कर
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