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आराधना कथाकोश रात सुखपूर्वक बीती। प्रातःकाल हुआ। राजा भी इसी समय वहां आ उपस्थित हआ। उसके साथ और भी बहुतसे अच्छे-अच्छे विद्वान् आये। अन्य साधारण जनसमूह भी बहुत इकट्ठा हो गया। राजाने आचार्यको बाहर ले आनेकी आज्ञा दी। वे बाहर लाये गये । अपने सामने आते हुए आचार्यको खूब प्रसन्न और उनके मुंहको सूर्यके समान तेजस्वी देखकर राजाने सोचा-इनके मुंहपर तो चिन्ताके बदले स्वर्गीय तेजकी छटायें छुट रही हैं, इससे जान पड़ता है ये अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अस्तु । तब भी देखना चाहिये कि ये क्या करते हैं। इसके साथ ही उसने 'आचार्यसे कहा-योगिराज ! कीजिये नमस्कार, जिससे हम भी आपकी अद्भुत शक्तिका परिचय पा सकें।
राजाकी आज्ञा होते ही आचार्यने संस्कृत भाषामें एक बहुत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण जिनस्तवन आरम्भ किया। स्तवन रचते-रचते जहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान्की स्तुतिका "चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचिगौरम्" यह पद्यांश रचना शुरू किया कि उसी समय शिवमति फटी और उसमें से श्रीचन्द्रप्रभ भगवान्की चतुमुख प्रतिमा प्रगट हुई । इस आश्चर्यके साथ ही जयध्वनिके मारे आकाश गंज उठा। आचार्यके इस अप्रतिम प्रभावको देखकर उपस्थित जनसमूहको दाँतोंतले अंगुली दबानी पड़ो। सबके सब आचार्यकी ओर देखतेके देखते ही रह गये।
इसके बाद राजाने आचार्य महाराजसे कहा-योगिराज! आपकी शक्ति, आपका प्रभाव, आपका तेज देखकर हमारे आश्चर्यका कुछ ठिकाना नहीं रहता। बतलाइये तो आप हैं कौन ? और आपने वेष तो शिवभक्तका धारण कर रक्खा है, पर आप शिवभक्त हैं नहीं। सुनकर आचार्यने नीचे लिखे दो श्लोक पढ़े
कांच्यां नग्नाटकोहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः, पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिव्राट। बाणारस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुराङ्गस्तपस्वी, राजन् यस्यास्तिशक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ।। पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटैविद्योत्कटः संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।।
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