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संजयन्त मुनिको कथा वैजयन्तने पूत्रोंपर अधिक दबाव न डालकर उनकी इच्छाके अनुसार उन्हें साधु बननेकी आज्ञा दे दी और राज्यका भार संजयन्त के पुत्र वैजयन्तको देकर स्वयं भी तपस्वी बन गये। साथ ही वे दोनों भाई भी साधु हो गये। ___ तपस्वी बनकर वैजयन्त मुनिराज खूब तपश्चर्या करने लगे, कठिनसे कठिन परीषह सहने लगे। अन्तमें ध्यानरूपी अग्निसे घातिया कर्मोंका नाशकर उन्होंने लोकालोकका प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । उस समय उनके ज्ञानकल्याणको पूजा करनेको स्वर्गसे देव आये । उनके स्वर्गीय ऐश्वर्य और उनकी दिव्य सुन्दरताको देखकर संजयन्तके छोटे भाई जयन्तने निदान किया- "मैंने जो इतना तपश्चरण किया है, मैं चाहता हूँ कि उसके प्रभावसे मुझे दूसरे जन्ममें ऐसी ही सुन्दरता और ऐसी ही विभूति प्राप्त हो।" वही हुआ। उसका किया निदान उसे फला। वह आयुके अन्तमें मरकर धरणेन्द्र हुआ।
इधर संजयन्त मुनि पन्द्रह-पन्द्रह दिनके, एक-एक महीनाके उपवास करने लगे, भूख प्यासकी कुछ परवा न कर बड़ी धोरताके साथ परीषह सहने लगे। शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया, तब भी भयंकर वनोंमें सुमेरुके समान निश्चल रहकर सूर्य की ओर मुंह किये वे तपश्चर्या करने लगे। गरमीके दिनोंमें अत्यन्त गरमी पड़ती, शीतके दिनोंमें जाड़ा खूब सताता, वर्षाके समय मूसलाधार पानी वर्षा करता और आप वृक्षोंके नीचे बैठकर ध्यान करते । वनके जीव-जन्तु सताते, पर इन सब कष्टोंको कुछ परवा न कर आप सदा आत्मध्यानमें लीन रहते।
एक दिनकी बात है संजयन्त मुनिराज तो अपने ध्यानमें डूबे हुए थे कि उसी समय एक विद्युइंष्ट्र नामका विद्याधर आकाशमार्गसे उधर होकर निकला । पर मुनिके प्रभावसे उसका विमान आगे नहीं बढ़ पाया । एकाएक विमानको रुका हुआ देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने नीचेकी ओर दृष्टि डालकर देखा तो उसे संजयन्त मुनि दीख पड़े। उन्हें देखते ही उसका आश्चर्य क्रोधके रूपमें परिणत हो गया। उसने मुनिराजको अपने विमानको रोकनेवाले समझकर उनपर नाना तरहके भयंकर उपद्रव करना शुरू किया उससे जहाँ तक बना उसने उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया। पर मुनिराज उसके उपद्रवोंसे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। वे जैसे निश्चल थे वैसे ही खड़े रहे । सच है वायुका कितना ही भयंकर वेग क्यों न चले, पर सुमेरु हिलता तक भी नहीं।
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