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रको और रति अधा
आराधना कथाकोश भी चले। यात्रा करते-करते एक दिन वे भगवान् वर्धमानके समवशरणमें पहुँच गये । भगवान्को उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय वहाँ गंधर्वदेव भगवान्की भक्ति कर रहे थे। उन्होंने कामकी निन्दामें एक पद्य पढ़ा । वह पद्य यह था
मइलकुचेली दरणी णाहे पवसियएण । ___ कह जीवेसइ । पधर उब्भते विरहेण ||
-कोई कवि अर्थात्-स्त्रो चाहे मैली हा. दी, हृदयकी मलिन हो, पर वह 'भी अपने पतिके प्रवासी होनेपर, शि . रहनेपर, नहीं जोकर पतिवियोगसे वन-वन, पर्वतों-पर्वतोंमें मान करती है। अर्थात् कामके वश होकर नहीं करनेके काम भी कर डाला ।
उक्त पद्यको सुनते ही पुष्पड , नाभी कामसे पीदित होकर अपनी स्त्रीकी प्राप्तिके लिय अधीर हो उठे। व्रतसे उदासीन होकर अपने शहरकी ओर रवाना हुए। उनके हाय की बात जानकर परिषेण मुनि भी उन्हें धर्ममें दृढ़ करनेके लिये उनका साथ-माथ चल दिये।
गुरु और शिष्य अपने शहर में पहुंचे। उन्हें देखकर सती चेलनाने सोचा-कि जान पड़ता है, पुत्र चारित्रसे चलायमान हुआ है। नहीं तो ऐसे समय इसके यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता थी? यह विचार कर उसने उसकी परीक्षाके लिए उसके बैठनेको दो आसन दिये। उनमें एक काष्ठका था और दूसरा रत्नजड़ित । वारिषेण मुनि रत्नजड़ित आसनपर न बैठकर काष्ठके आसनपर बैठे। सच है-जो सच्चे मुनि होते हैं वे कभी ऐसा तप नहीं करते जिससे उनके आचरणमें किसीको सन्देह हो । इसके बाद वारिषेण मुनिने अपनी माताके सन्देहको दूर करके उससे कहा-माता, कुछ समयके लिये मेरी सब स्त्रियोंको यहाँ बुलवा तो लीजिये । महारानीने वैसा ही किया। वारिषेणको सब स्त्रियाँ खूब वस्त्राभूषणोंसे सजकर उनके सामने आ उपस्थित हुई। वे बड़ी सुन्दरी थीं। देवकन्यायें भी उनके रूपको देखकर लज्जित होती थीं। मुनिको नमस्कार कर वे सब उनको आज्ञाकी प्रतीक्षाके लिये खड़ी रहीं।। ___ वारिषेणने तब अपने शिष्य पुष्पडालसे कहा-क्यों देखते हो न ? ये मेरी स्त्रियाँ हैं, यह राज्य है, यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये अच्छी जान पड़ती हैं, तुम्हारा संसारसे प्रेम है, तो इन्हें तुम स्वीकार करो । वारिषेण मुनिराजका यह आश्चर्यमें डालनेवाला कर्त्तव्य देखकर पुष्पडाल बड़ा
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