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कुमार मुनिकी कथा
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गुरुकी हितकर आको स्वर कर सब मुनि मौनके साथ ध्यान करने लगे । सच है -
शिष्यास्तंत्र प्रशस्यन्ते ये कुर्वन्ति गुरोर्वचः । प्रीतितो विनयोपेता भवन्त्यन्ये कुपुत्रवत् ।
-ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात् - शिष्य वे ही प्रशंसाके पात्र हैं, जो विनय और प्रेमके साथ अपने गुरुकी आज्ञा का पालन करते हैं । इसके विपरीत चलनेवाले कुपुत्रके समान निन्दा के पात्र हैं ।
अकम्पनाचार्य के आनेके समाचार शहरके लोगोंको मालूम हुए। वे पूजाद्रव्य लेकर बड़ी भक्तिके साथ आचार्यकी वन्दनाको जाने लगे । आज एकाएक अपने शहरमें आनन्दकी धूमधाम देखकर महलपर बैठे हुए श्रीवर्माने मंत्रियोंसे पूछा – ये सब लोग आज ऐसे सजधजकर कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर में मंत्रियोंने कहा - महाराज, सुना जाता है कि अपने शहरमें नंगे जैन साधु आये हुए हैं । ये सब उनकी पूजाके लिए जा रहे हैं । राजाने प्रसन्नता के साथ कहा- तब तो हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए। वे महापुरुष होंगे ! यह विचार कर राजा भी मंत्रियोंके साथ आचार्य के दर्शन करनेको गए । उन्हें आत्मध्यानमें लीन देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने क्रमसे एक-एक मुनिको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । सब मुनि अपने आचार्यकी आज्ञानुसार मौन रहे । किसीने भी उन्हें धर्मवृद्धि नहीं दी । राजा उनकी वन्दना कर वापिस महल लौट चले । लौटते समय मंत्रियोंने उनसे कहा - महाराज, देखे साधुओंको ? बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते, सब नितान्त मूर्ख हैं। यही तो कारण है कि सब मौनी बैठे हुए हैं । उन्हें देखकर सर्व साधारण तो यह समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान कर रहे हैं, बड़े तपस्वी हैं। पर यह इनका ढोंग है । अपनी सब पोल न खुल जाय, इसलिए उन्होंने लोगोंको धोखा देने को यह कपटजाल रचा है। महाराज, ये दाम्भिक हैं। इस प्रकार त्रैलोक्यपूज्य और परम शान्त मुनिराजोंकी निन्दा करते हुए ये मलिनहृदयी मंत्री राजाके साथ लौटे आ रहे थे कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गए, जो कि शहर से आहार करके वनकी ओर आ रहे थे । मुनिको देखकर इन पापियोंने उनकी हंसी की, महाराज, देखिए वह एक बैल और पेट भरकर चला आ रहा है । मुनिने मंत्रियोंके निन्दावचनोंको सुन लिया । सुनकर भी उनका कर्त्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, पर वे
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