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संजयन्त मुनिको कथा १. एक सेर पक्का गोमय खिलाया जाय; २. मल्लके द्वारा बत्तोस चूंसे लगवाये जाँय; या ३. सर्वस्व हरण पूर्वक देश निकाला दे दिया जाय !
राजाने अधिकारियोंके कहे माफिक दण्डकी योजना कर श्रीभूतिसे कहा कि तुम्हें जो दण्ड पसन्द हो, उसे बतलाओ। पहले श्रोभूतिने गोमय खाना स्वीकार किया, पर उसका उससे एक ग्रास भी नहीं खाया गया । तुब उसते मल्लके घमे खाना स्वीकार किया। मल्ल बुलवाया गया । घुसे लगना आरम्भ हआ। कुछ घंमोंको मार पड़ी होगी कि उसका आत्मा शरीर छोड़कर चल बसा। उसकी मृत्यु बड़े आर्तध्यानसे हुई। वह मरकर राजाके खजानेपर हो एक विकराल सर्प हुआ।
इधर समुद्रदत्तको इस घटनासे बड़ा वैराग्य हुआ। उसने संसारको दशा देखकर उसमें अपनेको फंसाना उचित नहीं समझा। वह उसी समय अपना सब धन परोपकारके कामोंमें लगाकर वनकी ओर चल दिया और धर्माचार्य नामके महामुनिसे पवित्र धर्मका उपदेश सुनकर साधु बन गया। बहुत दिनोंतक उसने तपश्चर्या को। इसके बाद आयुके अन्तमें मृत्यु प्राप्त कर वह इन्हीं सिंहसेन राजाके सिंहचन्द्र नामक पुत्र हुआ।
एक दिन राजा अपने खजानेको देखनेके लिये गये थे, उन्हें देखकर श्रीभतिके जीवको, जो कि खजानेपर सर्प हआ था, बड़ा क्रोध आया। क्रोधके वश हो उसने महाराजको काट खाया। महाराज आर्तध्यानसे मरकर सल्लकी नामक वनमें हाथी हुए। राजाकी सर्प द्वारा मृत्यु देखकर सुघोष मंत्रोको बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मन्त्रबलसे बहुतसे सर्पोको बुलाकर कहा-यदि तुम निर्दोष हो, तो इस अग्निकुण्डमें प्रवेश करते हुए अपने-अपने स्थानपर चले जाओ। तुम्हें ऐसा करनेसे कुछ भी कष्ट न होगा । जितने बाहरके सर्प आये थे वे सब तो चले गये । अब श्रीभूतिका , जीव बाको रह गया । उससे कहा गया कि या तो तु विष खींचकर महाराजको छोड़ दे, या इस अग्निकुण्डमें प्रवेश कर । पर वह महाक्रोधो था उसने अग्निकुण्डमें प्रवेश करना अच्छा समझा, पर विष खींच लेना उचित नहीं समझा। वह क्रोधके वश हो अग्निमें प्रवेश कर गया। प्रवेश करते हो वह देखते-देखते जलकर खाक हो गया। जिस सल्लको वनमें महाराजका जीव हाथी हुआ था, वह सर्प भी मरकर उसो वनमें मुर्गा हुआ। सच है पापियोंका कुयोनियोंमें उत्पन्न होना कोई आश्चर्यको बात नहीं है। इधर तो ये सब अपने-अपने कर्मोके अनुसार दूसरे भवोंमें उत्पन्न हुए और उधर सिंहसेनकी रानी पति-वियोगसे बहुत
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