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आराधना कथा कोश
भटका । उनमें उसने बहुत कष्ट सहा । अन्त में वह मरकर ऐरावत क्षेत्रान्तर्गत भूतरमण नामक वनमें बहनेवाली वेगवती नामकी नदीके किनारेपर गोशृंगतापसको शंखिनी नामकी स्त्रीके हरिणश्रृंग नामक पुत्र हुआ। वही पंचाग्नितप तपकर यह विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर हुआ है, जिसने कि संजयन्त मुनिपर पूर्वजन्म के बैरसे घोर उपसर्ग किया। और उनके छोटे भाई जयन्त मुनि निदान करके जो धरणेन्द्र हुए, वे तुम हो ।
संजयन्त मुनिपर पापी विद्युद्दष्टने घोर उपसर्ग किया, तब भी वे पवित्रात्मा रंच मात्र विचलित नहीं हुए और सुमेरुके समान निश्चल रहकर उन्होंने सब परीषहोंको सहा और सम्यक्तपका उद्योत कर अन्तमें मोक्ष प्राप्त किया । वहाँ उनके अनन्तज्ञानादि स्वाभाविक गुण प्रगट हुए । वे अनन्त कालतक मोक्षमें ही रहेंगे । अब वे संसार में नहीं आवेंगे ।"
दिवाकर ने कहा - नागेन्द्रराज ! यह संसारकी स्थिति है । इस देखकर इस बेचारेपर तुम्हें क्रोध करना उचित नहीं । इसे दया करके छोड़ दीजिये । सुनकर धरणेन्द्र बोला, मैं आपके कहने से इसे छोड़ देता हूँ, परन्तु इसे अपने अभिमानका फल मिले, इसलिये मैं शाप देता हूँ कि "मनुष्य पर्याय में इसे कभी विद्याकी सिद्धि न हो ।" इसके बाद धरणेन्द्र अपने भाई संजयन्त मुनिके मृतशरीरकी बड़ी भक्ति के साथ पूजा कर अपने
स्थानपर चला गया ।
इस प्रकार उत्कृष्ट तपश्चर्या करके श्रीसंजयन्त मुनिने अविनाशी मोक्षश्रीको प्राप्त किया । वे हमें भी उत्तम सुख प्रदान करें ।
श्रीमल्लिभूषण गुरु कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें हुए। वे जिनभगवान् के चरणकमलोंके भ्रमर थे, उनकी भक्ति में सदा लीन रहते थे, सम्यग्ज्ञानके समुद्र थे, पवित्र चारित्र के धारक थे और संसार समुद्र से भव्य जीवोंको पार करनेवाले थे । वे ही मल्लिभूषण गुरु मुझे भी सुख-सम्पत्ति प्रदान करें ।
६. अंजनचोरकी कथा
सुखके देनेवाले श्रीसर्वज्ञ वीतराग भगवान्के चरणकमलोंको नमस्कार कर अंजनचोरकी कथा लिखता हूँ, जिसने सम्यग्दर्शनके निःशंकित अंगका उद्योत किया है ।
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