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अनन्तमतीकी कथा
४७ ७. अनन्तमतीकी कथा मोक्ष सुखके देनेवाले श्रीअर्हन्त भगवान्के चरणोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अनन्तमतीकी कथा लिखता हूँ, जिसके द्वारा सम्यग्दर्शनके निःकांक्षित गुणका प्रकाश हुआ है ।
संसारमें अंगदेश बहत प्रसिद्ध देश है। जिस समयकी हम कथा लिखते हैं, उस समय उसकी प्रधान राजधानी चम्पापुरी थी। उसके राजा थे वसुवर्धन और उनको रानीका नाम लक्ष्मीमती था। वह सती थी, गुणवती थी और बड़ो सरल स्वभावकी थी। उनके एक पुत्र था। उसका नाम था प्रियदत्त । प्रियदत्तको जिनधर्मपर पूर्ण श्रद्धा थी। उसकी गृहिणोका नाम अंगवती था। वह बड़ो धर्मात्मा थी, उदार थी। अंगवतो. के एक पुत्री थी। उसका नाम अनन्तमतो था । वह बहुत सुन्दर थी, गुणोंकी समुद्र थी। ___अष्टाह्निका पर्व आया। प्रियदत्तने धर्मकीर्ति मुनिराजके पास आठ दिनके लिये ब्रह्मचर्य व्रत लिया। साथहीमें उसने अपनी प्रिय पुत्रोका भी विनोद वश होकर ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया । कभी-कभी सत्पुरुषोंका विनोद भी सत्य मार्गका प्रदर्शक बन जाता है । अनन्तमती के चित्तपर भी प्रियदत्तके दिलाये व्रतका ऐसा ही प्रभाव पड़ा । जब अनन्तमतीके ब्याहका समय आया और उसके लिये आयोजन होने लगा, तब अनन्तमतीने अपने पितासे कहा-पिताजी ! आपने मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिया था न ? फिर यह ब्याहका आयोजन आप किसलिये करते हैं ?
उत्तरमें प्रियदत्तने कहा-पुत्री, मैंने तो तुझे जो व्रत दिलवाया था वह केवल मेरा विनोद था । क्या तूं उसे सच समझ बैठी है ?
अनन्तमतो बोली-पिताजी, धर्म और व्रतमें हँसी विनोद कैसा, यह ' मैं नहीं समझी?
प्रियदत्तने फिर कहा-मेरे कुलकी प्रकाशक प्यारी पुत्री, मैंने तो तुझे ब्रह्मचर्य केवल विनोदसे दिया था। और तू उसे सच ही समझ बैठो है, तो भो वह आठ ही दिनके लिये था। फिर अब तू ब्याहसे क्यों इंकार करती है ? ___ अनन्तमतीने कहा-मैं मानती हूँ कि आपने अपने भावोंसे मुझे आठ ही दिनका ब्रह्मचर्य दिया होगा; परन्तु न तो आपने उस समय मुझसे ऐसा कहा और न मुनि महाराजने हो, तब में कैसे समझू कि वह आठ ही
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