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वारिषेण मुनिकी कथा
जब सब सिपाही चले गये तब जिनेन्द्रभक्तने क्षुल्लकजीसे रत्न लेकर एकान्त में उनसे कहा - बड़े दुःखकी बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेषको धारण कर उसे ऐसे नीच कर्मोंसे लजा रहे हो ? तुम्हें यही उचित है क्या ? याद रक्खो, ऐसे अनर्थोंसे तुम्हें कुगतियोंमें अनन्त काल दुःख भोगना पड़ेंगे। शास्त्रकारोंने पापी पुरुषोंके लिये लिखा है कि
ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयन्ति स्वकं भुवि । त्यक्वा न्यायक्रमं तेषां महादुःखं भवार्णवे ॥
- ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात् - जो पापी लोग न्यायमार्गको छोड़कर और पापके द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार समुद्र में अनन्त काल दुःख भोगते हैं । ध्यान रक्खो कि अनीति से चलनेवाले और अत्यन्त तृष्णावान तुम सरोखे पापी लोग बहुत ही जल्दी नाशको प्राप्त होते हैं । तुम्हें उचित है, तुम बड़ी कठिनतासे प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्मको इस तरह बर्बाद न कर कुछ आत्महित करो। इस प्रकार शिक्षा देकर जिनेन्द्र भक्तने अपने स्थानसे उसे अलग कर दिया ।
इसी प्रकार और भी भव्य पुरुषोंको, दुर्जनोंके मलिन कर्मोंसे निन्दाको प्राप्त होनेवाले सम्यग्दर्शनकी रक्षा करनी उचित है ।
जिनभगवान्का शासन पवित्र है, निर्दोष है, उसे जो सदोष बनानेकी कोशिश करते हैं, वे मूर्ख हैं, उन्मत्त हैं। ठीक भी है उन्हें वह निर्दोष धर्म अच्छा जान भी नहीं पड़ता । जैसे पित्तज्वरवालेको अमृत के समान मीठा दूध भी कड़वा ही लगता है ।
११. वारिषेण मुनिकी कथा
मैं संसारपूज्य जिनभगवान्को नमस्कार कर श्रीवारिषेण मुनिकी कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यग्दशनके स्थितिकरण नामक अंगका पालन किया है ।
अपनी सम्पदासे स्वर्गको नीचा दिखानेवाले मगधदेशके अन्तर्गत
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