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अनन्तमतीकी कथा और ऐसी नीच बातें ? जिसे मैंने रस्सी समझकर हाथमें लिया था, मैं नहीं समझती थी कि वह इतना भयंकर सर्प होगा। क्या यह बाहरी चमक-दमक और सीधापन केवल दाम्भिकपना है ? केवल बगुलोंकी हंसोंमें गणना करानेके लिये है ? यदि ऐसा है तो मैं तुम्हें, तुम्हारे इस ठगी वेषको, तुम्हारे कुलको, तुम्हारे धन-वैभवको और तुम्हारे जीवनको धिक्कार देती हूँ, अत्यन्त घृणाकी दृष्टिरो देखती हूँ। जो मनुष्य केवल संसारको ठगनेके लिये ऐसे मायाचार करता है, बाहर धर्मात्मा बननेका ढोंग रचता है, लोगोंको धोखा देकर अपने मायाजालमें फंसाता है, वह मनुष्य नहीं है, किन्तु पशु है, पिशाच है, राक्षस है। वह पापी मुंह देखने योग्य नहीं, नाम लेने योग्य नहीं। उसे जितना धिक्कार दिया जाय थोड़ा है। मैं नहीं जानती थी कि आप भी उन्हीं पुरुषोंमेंसे एक होंगे। अनन्तमती और भी कहती, पर वह ऐसे कुलकलंक नीचोंके मुंह लगना उचित नहीं समझ चुप हो रही । अपने क्रोधको वह दबा गई।
उसकी जलो भुनी बातें सुनकर पुष्पक सेठको अक्ल ठिकाने आ गई। वह जलकर खाक हो गया, क्रोधसे उसका सारा शरीर काँप उठा, पर तब भी अनन्तमतीके दिव्य तेजके सामने उससे कुछ करते नहीं बना। उसने अपने क्रोधका बदला अनन्तमतीसे इस रूपमें चुकाया कि वह उसे अपने शहरमें ले जाकर एक कामसेना नामकी कुट्टिनीके हाथ सौंप दिया। सच बात तो यह है कि यह सब दोष दिया किसे जा सकता है, किन्तु कर्मोकी ही ऐसी विचित्र स्थिति है, जो जैसा कर्म करता है उसका उसे वेसा फल भोगना ही पड़ता है । इसमें नई बात कुछ नहीं है।
कामसेनाने भी अनन्तमतीको कष्ट देने में कुछ कसर नहीं रखो। जितना उससे बना उसने भयसे, लोभसे उसे पवित्र पथसे गिराना चाहा, उसके सतीत्वधर्मको भ्रष्ट करना चाहा, पर अनन्तमती उससे नहीं डिगी । वह सुमेरुके समान निश्चल बनी रही। ठीक तो है जो संसारके दुःखोंसे डरते हैं, वे ऐसे भी सांसारिक कामोंके करनेसे घबरा उठते हैं, जो न्यायमार्गसे भी क्यों न प्राप्त हए हों, तब भला उन पुरुषोंकी ऐसे घृणित और पाप कार्यों में कैसे प्रीति हो सकती है ? कभी नहीं होती।
कामसेनाने उसपर अपना चक्र चलता न देखकर उसे एक सिंहराज नामके राजाको सौंप दिया। बेचारी अनन्तमतीका जन्म ही न जाने कैसे बुरे समय में हआ था, जो वह जहाँ पहँचती वहीं आपत्ति उसके सिरपर सवार रहती। सिंहराज भी एक ऐसा ही पापी राजा था। वह
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