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संजयन्त मुनिकी कथा नाश करने वाला है। आयुके अन्तमें शान्तिके साथ मृत्यु प्राप्त कर वह सहस्रारस्वर्गमें देव हआ। सच है धर्मके सिवा और कल्याणका कारण हो ही क्या सकता है ? ___वह सर्प भी बहुत कष्टोंको सहन कर मरा और तीव्र पापकर्मके उदयसे चौथे नरकमें जाकर उत्पन्न हुआ, जहाँ अनन्त दुःख हैं और जबतक आयु पूर्ण नहीं होती तबतक पलक गिराने मात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता।
सिंहसेनका जीव जो हाथी मरा था, उसके दाँत और कपोलोंमेंसे निकले हुए मोती, एक भीलके हाथ लगे। भीलने उन्हें एक धनमित्र नामक साहकारके हाथ बेच दिये और धनमित्रने उन्हें सर्वश्रेष्ठ और कीमती समझकर राजा पूर्णचंद्रको भेंट कर दिये । राजा देखकर बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने उनके बदलेमें धनमित्रको खूब धन दिया। इसके बाद राजाने दाँतोंके तो अपने पलंगके पाये बनवाये और मोतियोंका रानीके लिये हार बनवा दिया। इस समय वे विषयसुखमें खूब मग्न होकर अपना काल बिता रहे हैं। यह संसारकी विचित्र दशा है। क्षण-क्षणमें क्या होता है सो सिवा ज्ञानी के कोई नहीं जान पाता और इसीसे जीवोंको संसारके दुःख भोगना पड़ते हैं। माता, पूर्णचन्द्रके कल्याणका एक मार्ग है, यदि तुम जाकर उपदेश दो और यह सब घटना उसे सुनाओ, तो वह अवश्य अपने कल्याणकी ओर दृष्टि देगा।
सुनते ही वह उठी और पूर्णचन्द्रके महल पहुंची। अपनी माताको देखते ही पूर्णचंद्र उठे और बड़े विनयसे उसका सत्कार कर उन्होंने उसके लिये पवित्र आसन दिया और हाथ जोड़कर वे बोले-माताजी, आपने अपने पवित्र चरणोंसे इस समय भी इस घरको पवित्र किया, उससे मझे जो प्रसन्नता हुई वह वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती। मैं अपने जीवनको, सफल समझंगा यदि मुझे आप अपनी आज्ञाका पात्र बनावेंगी। वह बोलीमुझे एक आवश्यक बातकी ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना है । इसीलिये मैं यहाँ आई हूँ। और वह बड़ी विलक्षण बात है, सुनते हो न ? इसके बाद आयिकाने यों कहना आरंभ किया
"पुत्र, जानते हो, तुम्हारे पिताको सर्पने काटा था, उसको वेदनासे मरकर वे सल्लकीवनमें हाथी हुए और वह सर्प मरकर उसी वनमें मुर्गा हुआ। एक दिन हाथी जल पीने गया। वह नदीके किनारे पर खूब गहरे कीचड़ में फंस गया । वह उसमेंसे किसी तरह निकल नहीं सका । अन्तमें
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