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आराधना कथाकोश
था न ? कि कोई निर्धन मनुष्य पागल बनकर मेरे पास आवेगा और झूठा ही बखेड़ाकर झगड़ा करेगा। वही सत्य निकला । कहिये तो ऐसे दरिद्रीके पास रत्न आ कहाँसे सकते हैं ? भला, किसोने भी इसके पास कभी रत्न देखे हैं । यों ही व्यर्थ गले पड़ता है । ऐसा कहकर उसने नौकरों द्वारा समुद्रदत्तको निकलवा दिया। बेचारा समुद्रदत्त एक तो वैसे हो विपत्तिका मारा हुआ था; इसके सिवा उसे जो एक बड़ी भारी आशा थी उसे भी पापी श्रीभूतिने नष्ट कर दिया । वह सब ओरसे अनाथ हो गया । निराशा के अथाह समुद्र में गोते खाने लगा । पहले उसे अच्छा होनेपर भी श्रीभूतिने पागल बना डाला था; पर अब वह सचमुच ही पागल हो गया । वह शहर में घूम-घूमकर चिल्लाने लगा कि पापी श्रीभूतिने मेरे पाँच रत्न ले लिये और अब वह उन्हें देता नहीं है । राजमहल के पास भी उसने बहुत पुकार मचाई, पर उसकी कहीं सुनाई नहीं हुई । सब उसे पागल समझकर देते थे । अन्तमें निरुपाय हो उसने एक वृक्षपर चढ़कर, जो कि दुतकार रानी महलके पीछे ही था, पिछली रातको बड़े जोरसे चिल्लाना आरंभ किया । रानीने बहुत दिनोंतक तो उसपर बिलकुल ध्यान नहीं दिया । उसने भी समझ लिया कि कोई पागल चिल्लाता होगा । पर एक दिन उसे खयाल हुआ कि वह पागल होता तो प्रतिदिन इस समय आकर क्यों चिल्लाता ? सारे दिन ही इसी तरह आकर क्यों न चिल्लाता फिरता ? इसमें कुछ रहस्य अवश्य है । यह विचार कर उसने एक दिन राजासे कहा - प्राणनाथ ! आप इस चिल्लानेवालेको पागल बताते हैं, पर मेरो समझमें यह बात नहीं आती। क्योंकि यदि वह पागल होता तो न तो बराबर इसी समय चिल्लाता और न सदा एक ही वाक्य बोलता | इसलिये इसका ठीक-ठीक पता लगाना चाहिये कि बात क्या है ? ऐसा न हो कि अन्याय से बेचारा एक गरीब बिना मौत मारा जाय। रानीके कहने के अनुसार राजाने समुद्रदत्तको बुलाकर सब बातें पूछीं । समुद्रदत्तने जैसी अपनेपर बीती थी, वह ज्योंकी त्यों महाराजसे कह सुनाई । तब रत्न कंसे प्राप्त किये जाँय, इसके लिये राजाको चिन्ता हुई । रानी बड़ी बुद्धिमती थी । इसलिये रत्नोंके मँगालेनेका भार उसने अपने पर लिया ।
रानीने एक दिन श्रीभूतिको बुलाया और उससे कहा- मैं आपकी शतरंज खेलने में बड़ी तारीफ सुना करती हूँ। मेरी बहुत दिनोंसे इच्छा थी कि मैं एक दिन आपके साथ खेलूँ । आज बड़ा अच्छा सुयोग मिला जो आप यहीं पर उपस्थित हैं । यह कहकर उसने दासोको शतरंज ले आनेकी आज्ञा दी |
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