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आराधना कथाकोश
आप नौकरोंसे उस बचे सामानको उठा लेनेके लिये कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि सामने ही खड़े हुए राजा और ब्राह्मणोंपर पड़ी। आज एकाएक उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । ये झटसे समझ गये कि आज अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है । इतने ही में वे ब्राह्मण उनसे पूछ बैठे कि योगिराज ! क्या बात है, जो कई दिनोंसे बराबर आहार बचा रहता है ? क्या शिवजी अब कुछ नहीं खाते ? जान पड़ता है, वे अब खूब तृप्त हो गये हैं । इसपर आचार्य कुछ कहना ही चाहते थे कि वह धूर्त लड़का उन फूल पत्तोंके नीचेसे निकलकर महाराज के सामने था खड़ा हुआ और बोला - राजा राजेश्वर ! वे योगी तो यह कहते थे कि मैं शिवजीको भोजन कराता हूँ, पर इनका यह कहना बिलकुल झूठा है । असल में ये शिवजीको भोजन न कराकर स्वयं ही खाते हैं । इन्हें खाते हुए मैंने अपनी आँखोंसे देखा है । योगिराज ! सबकी आँखोंमें आपने तो बड़ी बुद्धिमानीसे धूल झोंकी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप योगी नहीं, किन्तु एक बड़े भारी धूर्त हैं । और महाराज ! इनकी धूर्तता तो देखिये, जो शिवजीको हाथ जोड़ना तो दूर रहा उल्टा ये उनका अविनय करते हैं । इतने में वे ब्राह्मण भी बोल उठे, महाराज ! जान पड़ता है यह शिवभक्त भी नहीं है । इसलिये इससे शिवजीको हाथ जोड़नेके लिये कहा जाय, तब सब पोल स्वयं खुल जायगी। सब कुछ सुनकर महाराजने आचार्य से कहा-अच्छा जो कुछ हुआ उसपर ध्यान न देकर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारा असल धर्म क्या है ? इसलिये तुम शिवजीको नमस्कार करो । सुनकर भगवान् समन्तभद्र बोले- राजन् ! मैं नमस्कार कर सकता हूँ, पर मेरा नमस्कार स्वीकार कर लेनेको शिवजी समर्थ नहीं हैं । कारण – वे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि विकारोंसे दूषित हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के पालनका भार एक सामान्य मनुष्य नहीं उठा सकता, उसी प्रकार मेरी पवित्र और निर्दोष नमस्कृतिको एक रागद्वेषादि विकारोंसे अपवित्र देव नहीं सह सकता । किन्तु जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं, केवलज्ञानरूपी प्रचण्ड तेजका धारक है और लोकालोकका प्रकाशक है, वही जिनसूर्य मेरे नमस्कारके योग्य हैं और वही उसे. सह भी सकता है । इसलिये मैं शिवजीको नमस्कार नहीं करूँगा इसके सिवा भी यदि आप आग्रह करेंगे तो आपको समझ लेना चाहिये कि इस शिवमूर्तिको कुशल नहीं है, यह तुरत ही फट पड़ेगी । आचार्यकी इस बात से राजाका विनोद और भी बढ़ गया । उन्होंने कहा - योगिराज !
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