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आनन्द प्रवचन : भाग ६
अनेक विषयों में पारंगत होते हुए भी पण्डितजी को उत्तर न सूझा। उन्होंने सात दिन की मुद्दत माँगी । वे शहर छोड़कर पैदल ही भागे, एक गाँव में पहुँचे। थककर चूर हो गए थे। एक मकान की छाया में विश्राम लिया । मकान मालकिन वेश्या ने खिड़की से पण्डितजी को बैठा देखा तो वह द्वार खोलकर बाहर आई । पण्डितजी से परिचय जानना चाहा तो उन्होंने पहली बार में ही अपनी सारी रामकहानी कह डाली।
___ वेश्या सोचती रही कि इतने विद्वान् होने पर भी इन्हें पता नहीं कि पाप का बाप कौन है ।
वेश्या ने पण्डितजी से कहा- "उत्तर तो मैं बता सकती हूँ, बशर्ते कि आप मेरे घर में पधार कर इसे पवित्र करें। पर मैं वेश्या हूँ, यह मकान मेरा है।" यह सुनते ही पण्डितजी छी-छी कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोले-'मैं धर्मभ्रष्ट नहीं होना चाहता।"
वेश्या ने कहा- "मर्जी आपकी ! पर मेरे घर की छाया में बैठे ब्राह्मणदेव को दक्षिणा देना मेरा कर्तव्य है ।" यों कहकर वेश्या ने दो स्वर्णमुद्राएँ उनके चरणों पर फैंक दी। मौहरों की चमक से मुग्ध बने पण्डितजी उसके आग्रह से घर में जा घुसे । वेश्या जब पानी का गिलास उनके हाथ में थमाने लगी, तब एक बार तो बिजली के करैट लगने की तरह पण्डितजी पीछे हटे, परन्तु चार मोहरों की चमक से वह भी सम्भव हो गया । जलपान ही नहीं, भोजन भी हुआ। यहाँ तक कि कुछ ही स्वर्णमुद्राओं की चकाचौंध में आकर वे वेश्या के मुंह का झूठा पान भी खाने को उतावले हो उठे। पर पण्डितजी अपने प्रश्न का उत्तर पाने की अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे थे । तभी वेश्या ने मीठी मुस्कान भरकर पूछा- "भूदेव ! अब तो आप समझ ही गए होंगे कि पाप का बाप कौन है ?"
वे बोले- "तुमने कुछ भी नहीं बताया । मैं कैसे समझ जाता ?"
वेश्या- "वाह ! अब भी नहीं समझे? देखिये-आप तो मेरे मकान की छाया में बैठना भी पाप समझते थे, किन्तु उसके बाद निःसंकोच गृहप्रवेश, जलपान, भोजन और फिर झूठा पान, ये सब किस कारण हुए ? इसका उत्तर स्वर्णमुद्राओं का लोभ ही तो है !"
अब पण्डितजी बोलते भी क्या ? ___ सचमुच पण्डितजी जिस बात को धर्म समझकर चले थे, धन के लोभ ने उस धर्म से उन्हें बिलकुल नीचे गिरा दिया । इसीलिए महाभारत (शान्तिपर्व) में कहा है
_ 'लोभाद् धर्मो विनश्यति ।' -लोभ से धर्म का नाश हो जाता है।
धनलोभ के आगे मनुष्य अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य या धर्म को भी तिलांजलि दे देता है। पिता चाहे मरणशय्या पर हो, परन्तु पुत्र को धनलोभ का
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