Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 425
________________ कुशिष्य को बहुत कहना भी विलाप ४०५ पूर्णतया समर्पित, गुरु के संकेत के अनुसार संघ का संचालन करने वाले एवं आदर्श शिष्य थे। उन्हीं की आदर्श शिष्यता के फलस्वरूप आज संघ को इतनी बहुमूल्य शास्त्रीय ज्ञाननिधि मिली है। एक आधुनिक उदाहरण लीजिए-स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गले पर एक बार एक जहरीला फोड़ा हो गया था। शिष्य फोड़े का चेप लग जाने के भय से गुरु से दूर-दूर रहने लगे । स्वामी विवेकानन्द उन दिनों धर्मप्रचार के लिए कहीं बाहर गये हुए थे। जब उन्हें गुरु की बीमारी के समाचार मिले तो वे शीघ्र लौट आए । यहाँ आकर जब उन्होंने देखा कि शिष्य उनकी सेवा नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ । गुरु की अपार वेदना देख उनमें उत्कट भक्तिधारा उमड़ पड़ी। फलतः अपने प्राणों का मोह छोड़कर एक कटोरे में फोड़े का मवाद निकालकर 'जय गुरुदेव' कहते हुए उसे गठगटा गए । जहर अमृत बन गया। जो शिष्य गुरु रामकृष्ण परमहंस को छूने में चेपी रोग लग जाने का भय खा रहे थे । वे भी वहाँ आ खड़े हुए और तत्काल उनकी परिचर्या में जुट पड़े। वास्तव में जिस शिष्य में गुरु के प्रति उत्कट भक्ति होती है, समर्पण भाव होता है, गुरु के प्रति अटूट विश्वास होता है, उसे अपने जीने-मरने, कष्ट पाने या सुखसुविधाओं की कोई अपेक्षा नहीं होती। . यह हुई सुशिष्य-कुशिष्य को पहचानने की प्रथम विधि । दूसरी विधि हैगुरु द्वारा शिष्य की कठोर परीक्षा लेकर पहचानने की । यह विधि जरा कठिन तो है, परन्तु इस विधि से परीक्षा लेने पर जो शिष्य उत्तीर्ण हो जाता है, उसे गुरुकृपा, गुव का आशीर्वाद तथा गुरु की समस्त विद्याएँ तया शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं, वह जगत् में सुशिष्य के नाम से स्वतः विख्यात हो जाता है। गुरु जब अपने शिष्य की कठोर वचनों से, ठोकरें मारकर, चांटा लगाकर, कोसकर या पीटकर परीक्षा लेते हैं, उस समय सुशिष्य अपने लिए परम लाभ, हित शासन और कल्याणमय अनुशासन मानता है; जबकि कुशिष्य हितैषी गुरु को द्वषी, पक्षपाती और शत्रु मानता है। देखिये इस सम्बन्ध में शास्त्रीय चिन्तन जं मे बुद्धाणुसासंति सीएण फरसेण वा। मम लाभोत्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ॥' अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य चोयणं । हियं तं मण्णए पण्णो, वेसं होइ असाहुणो॥२ प्रत्तो मे भाय नाइ ति, साह कल्लाण मन्नई। पावविष्टी उ अप्पाणं, सासं दासं व मन्नई ॥3. 'P' का २ २ १ ३ उत्तरा० ११२७, उत्तरा० ११३६, उत्तरा० ११२८, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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