Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 424
________________ ४०४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ "गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर कदापि न बैठा रहे, किन्तु बुद्धिमान शिष्य आसन छोड़कर यत्नपूर्वक गुरुवचनों को सुने ।" "आसन या शय्या पर बैठा-बैठा ही गुरु से न पूछे, अपितु आसन से उठकर उत्कटिकासन करता हुआ हाथ जोड़कर प्रश्न (सूत्रादि अर्थ) पूछे। शिष्य को अपनी शय्या, गति, स्थान और आसन, ये सब गुरु से नीचे रखने चाहिए तथा नम्र होकर, दोनों हाथ जोड़कर गुरुचरणों में वन्दना करनी चाहिए । असावधानी से यदि गुरु के शरीर या उपकरणों का संघट्टा (स्पर्श) हो जाए तो शिष्य नम्रता से कहे-भगवन् ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें। फिर कभी ऐसा नहीं होगा।" "अधिक प्रज्ञावान होने पर भी शिष्य गुरु की अवज्ञा न करे।" "जिस गुरु से आत्मविकासी धर्मशास्त्रों के गूढ़तत्त्वों की शिक्षा ग्रहण करे, उसकी पूर्णरूप से विनयभक्ति करे, हाथ जोड़कर सिर से नमस्कार करे और मन-वचनकाया से सदा यथोचित सत्कार करे।" इन विनय आदि गुणों से गुरु अपने शिष्य की गतिविधि को देख-परख सकता है । अगर ये गुण शिष्य में पाये जाएँ तो समझ लेना चाहिए कि वह सुशिष्य है । ऐसे सुशिष्य को अध्यात्मज्ञान एवं शास्त्रीयज्ञान देने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा सुशिष्य न तो अपने लिए सुख-सुविधा चाहता है, न कोई बढ़िया वस्त्र-पात्र । वह केवल गुरुकृपा चाहता है, गुरु के द्वारा लोककल्याण चाहता है और चाहता है-गुरु का उपदेश श्रवण । तथागत बुद्ध के परमभक्त शिष्य आनन्द इसी प्रकार के विनीत सुशिष्य थे। बुद्धत्वप्राप्ति के २० वर्ष पश्चात् से लेकर लगातार २५ वर्ष तक उन्होंने बुद्ध की सेवा इन चार शर्तों के साथ की थी (१) बुद्ध स्वयंप्राप्त उत्तम भोजन, वस्त्र एवं गंधकुटीर में निवास मुझे न दें। (२) निमन्त्रण में मुझे साथ न ले जाएँ, मेरे द्वारा स्वीकृत निमंत्रण में वे अवश्य जाएँ। (३) दर्शनार्थी को मैं जब चाहूँ तब मिला सकूँ, मैं भी जब चाहूँ तब निकट जा सकें। (४) मेरी अनुपस्थिति में दिया गया उपदेश मुझे पुनः सुनाया जाए । कहते हैं-भिक्षु आनन्द क्रमशः ६० हजार शब्द याद रख सकते थे। ऐसे सुशिष्य को पाकर और उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर भला कौन गुरु धन्य न होगा? यही बात श्रमण भगवान् महावीर के पट्टधर शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम के सम्बन्ध में कही जा सकती है । वे भी परम विनीत, परम आज्ञाकारी, गुरुसेवा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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