________________
कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ४१३ युक्त थे। उन दुष्टशिष्यों से वे तंग आ गये, उनकी आत्मा में बहुत विषाद होता। आखिर उन्होंने सभी कुशिष्यों को छोड़ दिया और सुसमाहित एवं स्वस्थ होकर एकाकी विचरण करने लगे।
इसी प्रकार एक हुए हैं कालिकाचार्य । उनके भी शिष्य तो अनेक थे, पर थे वे सब के सब पहले दर्जे के आलसी । सुबह प्रतिदिन गुरुजी प्रतिक्रमण के समय उठाते, पर कोई उठता ही नहीं था, न समय पर कोई धर्मक्रिया करता था। गुरुजी उन्हें सीख देते-देते थक गये । अतः उन कुशिष्यों को गुरु की शिक्षा देना व्यर्थ हुआ। कहा भी है
दीधी पण लागी नहीं, रीते चूल्हे फूक ।
गुरु बिचारा क्या करे, चेला ही में चूक ॥ यों सोचकर एक दिन प्रातः नित्यक्रिया से निवृत्त होकर शय्यातर श्रावक से यह कहकर विहार कर गये कि मैं सागराचार्य के पास सुवर्णभूमि जा रहा हूँ। मेरे शिष्य अत्याग्रहपूर्वक पूछे तो उन्हें बता देना।
शिष्य देर से उठे, गुरुजी को न देखा तो घबराये । शय्यातर से पूछा तो पता लगा। तत्पश्चात् वे सब वहां से विहार करके एक दिन गुरुजी के पास पहुँचे। सागराचार्य भी पहले तो अपने दादागुरु कालिकाचार्य को पहचान न सके, इसलिए अवज्ञा एवं उपेक्षा की। पर बाद में पता लगा तो उनसे क्षमा-याचना की।
बन्धुओ ! अनेक कुशिष्य भी गुरु के लिए सिरदर्द होते हैं फिर उन्हें हितशिक्षा देना तो बहुत ही दुष्कर है, कोरा प्रलाप है। इसीलिए महर्षि गौतम ने चेतावनी दी है
'बहू कुसीसे कहिए विलावो'
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org