________________
४१०
आनन्द प्रवचन : भाग ६
पंचक मुनि सुनकर शांति और गम्भीरता से बोले – “भगवन् ! यह मैं हूँ आपका शिष्य पथक । आज चातुर्मासिक समाप्ति के प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने और वन्दना -क्षमापना करने हेतु मैं आया था, मेरा मस्तक आपके पवित्र चरणों में झुकाते हुए छू गया प्रभो ! इसी कारण आपकी निद्रा भंग होगई । क्षमा करें, प्रभो ! क्षमा !" पन्थक के प्रत्येक वचन में नम्रना, सरलता और मृदुता भरी थी ।
इस प्रकार नम्रता से निवेदन का परिणाम अच्छा ही हुआ । पन्थक की सुशिष्य गुणसाधना आज पूर्ण हुई । गुरुदेव की आत्मा जागी । चरणस्पर्श से तो घोर निद्रित मन जागा, पर शब्द - स्पर्श से उनकी अन्तरात्मा जाग उठी । मन्थन चला - ' - "कहाँ दीक्षा के समय का तपस्वी शैलक और कहाँ आज का रसलोलुप शैलक कहाँ विषैले जन्तु के प्रति भी क्षमाशील शैलक और कहाँ विनयमूर्ति शिष्य पंथक को डाँटने वाला शैलक ! कार्तिक पूर्णिमा की पूर्ण चाँदनी आज शैलक राजर्षि के हृदयाकाश में छाई थी । वे पश्चात्तापमग्न होगए । प्रेमभरी मधुर वाणी में बोले
!
1
"अहो प्रिय पंथक ! तुम्हारे धैर्य को धन्य है । कितनी धीरता और उदारता है तुममें कि ऐसे आचार शिथिल गुरु को भी न छोड़ा । चरणों का मस्तक से स्पर्श करने पर क्रोध करने वाले शैलक के प्रति भी — 'भगवन् क्षमा करो', यह नम्र वचनावली । कहाँ तू सद्गुणों का पुंज और कहाँ मैं दोषों का भंडार । सचमुच तू ही था, जो मेरे पास अकेला टिका रहा । मेरे परमोपकारी चारित्रसहायक पन्थक ! तू न होता तो मेरी क्या दशा होती । "
इस तरह अश्रू पूरित नेत्रों से शैलक राजर्षि ने अपना हृदयभार हलका किया । वैराग्य अब प्रबल हो उठा । एक ही झटके में शैलक राजर्षि ने प्रमाद को झाड़ दिया । प्रातःकाल होते ही विहार की भावना व्यक्त की ।
पंथक भी हर्षाश्रुपूर्वक गद्गद होकर बोला - "गुरुदेव ! पंथक में जो कुछ है, वह आपका ही दिया हुआ प्रसाद है । शिष्य तो गुरु की छाया होता है । अपने उपास्य के असीम ऋण में से यत्किंचित् ऋण अदा कर सका तो मैं धन्य मानूँगा । आप आशीर्वाद दें कि मैं समग्र ऋण अदा कर सकूँ । आपकी कृपा से यह आत्मा संसार दावानल से बची है, इसलिए चाहता हूँ, आपका निर्मल आलम्बन इस सेवक को मिलता रहे । "
सचमुच पन्थक एक आदर्श शिष्य था, उसमें शास्त्रोक्त गुणी शिष्य- कर्तव्य कूट-कूट कर भरे थे । इसी कारण वह गुरु के आत्मोत्थान में सहायक बन सका ।
हाँ, तो इस प्रकार विनयादि गुणों से, कठोर परीक्षा से, और गुणी शिष्य के कर्तव्यों एवं व्यवहारों से सुशिष्य की पहचान हो जाती है । कुशिष्यों को ज्ञान देना सर्प को दूध पिलाना है
इसके विपरीत जो विनयादि गुणों में भी खरा न उतरे, कठोर परीक्षा में भी पास न हो और शिष्य के कर्तव्यों और व्यवहारों में पिछड़ा हो, वह शिष्य सुशिष्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org