Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 429
________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ४०६ ये चारों गुणवान सुशिष्य के कर्तव्य हैं । इन कर्तव्यों एवं व्यवहारों पर से सुशिष्य की परख गुरु कर लेते हैं। ज्ञातासूत्र में ऐसे ही एक गुणवान आदर्श शिष्य का उदाहरण मिलता है, जिसने संयममर्यादाओं के अतिक्रमणकर्ता अपने गुरु की अनन्य सेवा-भक्ति करके उन्हें सत्पथ पर मोड़ दिया था। उसका नाम था पन्थकमुनि । वह शैलक राजर्षि का शिष्य था । शैलक राजर्षि ५०० शिष्यों के गुरु थे। वे शैलकपुर के राजा थे, किन्तु शुक नामक जैनाचार्य के प्रतिबोध से विरक्त होकर मंडूक नामक युवराज को राजगद्दी सौंपकर अपने ५०० कर्मचारियों सहित उन्होंने मुनिदीक्षा धारण कर ली। ग्रामों-नगरों में विचार करते हुए एक बार शैलक राजर्षि अपने भूतपूर्व राज्य शैलकपुर पधारे । पूर्वकर्मोदयवश उनका शरीर व्याधि से जीर्णशीर्ण होगया था । मंडूक राजा ने उनके शरीर रोगग्रस्त देखकर यथोचित उपचार के लिए अपने यहाँ रुकने का सविनय आग्रह किया । वे अत्याग्रहवश रुक गये । वैद्यकीय उपचार से उनका शरीर स्वस्थ होगया। किन्तु पूर्वपरिचित लोगों के श्रद्धाभक्तिवश स्वादिष्ट एवं गरिष्ठ खानपान ग्रहण करने से उन्हें स्वादलोलुपता का रोग लग गया, जिस पर मंडूक राजा तथा अन्य राजकर्मचारियों एवं पौरजनों का विनय, भक्ति, श्रद्धा का अतिरेक एवं रुकने का आग्रह ! अतः शैलक राजर्षि वहाँ अच्छी तरह जम गये। शिष्यों के बारंबार अनुरोध पर भी वे विहार करने का नाम ही न लेते थे। उनके ४६६ शिष्यों को गुरुदेव की यह मनोदशा संयमोचित न लगी। परन्तु अपने मार्गदर्शक गुरु को प्रबोध कैसे दें ? इसलिए विवश होकर उनसे आज्ञा प्राप्त करके ४६६ शिष्य तो अन्यत्र विहार कर गये। सिर्फ एक धैर्यधारी, गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पणकर्ता, अनन्यभक्त शिष्य पन्थक उनकी सेवा में रहा । पन्थक गुरु की सेवा अम्लानभाव से करता रहा । उसे दृढ़ विश्वास था कि गुरुजी एक न एक दिन अवश्य ही प्रबुद्ध होंगे। यह असंयम दशा स्थायी नहीं रहेगी, इनकी आत्मा स्वतः जागृत होगी। धैर्य और आत्म-समर्पण ही सुशिष्य के धर्म हैं। यों सोचकर पन्थक समभावपूर्वक अपनी साधना में रत था। कई चातुर्मास व्यतीत होगए। एक दिन कार्तिक पूर्णिमा थी, चातुर्मास की पूर्णाहुति का दिन था। पन्थकमुनि ने दैनिक एवं चातुर्मासिक समस्त सूक्ष्म-स्थूल प्रवृत्तियों में लगे हुए पाप-दोषों के आलोचन, प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप एवं प्रायश्चितस्वरूप प्रति क्रमण (आवश्यक) की आज्ञा लेने और गुरुदेव की चातुर्मासिक सम्बन्धी अविनय आशातना सम्बन्धी अपराधों की क्षमा याचना करने हेतु गुरु चरणों में अपना मस्तक झुकाया। गरिष्ठ एवं प्रमादक खानपान लेने से गुरुजी को सन्ध्या समय से ही गुलाबी नींद की झपकी आरही थी। [उसमें एकाएक खलल पड़ने से वे चौंके और डाँटने लगे—“अरे ! कौन दुष्ट, पापी है यह, जिसने मेरी नींद उड़ा दी ?"] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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