Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 427
________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ४०७ स्वामी विवेकानन्द जब तक रामकृष्ण परमहंस के शिष्य नहीं बने थे, उस समय (नरेन्द्र के रूप में थे तब ) की एक घटना है— उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का उन पर असीम स्नेह था। ऐसा होने पर भी एक बार उन्होंने 'नरेन्द्र' (विवेकानन्द ) से बोलना बन्द कर दिया । जब नरेन्द्र उनके सम्मुख जाते, तब वे अपना मुँह दूसरी - ओर मोड़ लेते । नरेन्द्र प्रतिदिन सहजभाव से उन्हें प्रणाम करते और थोड़ी देर उनके पास बैठकर लौट आते । यही क्रम कितने ही सप्ताह तक चलता रहा । तब एक दिन स्वामी रामकृष्ण ने उससे पूछा - " मैं तुझसे नहीं बोलता, तब भी तू प्रतिदिन आता है, क्या बात है ?" नरेन्द्र ने कहा - "गुरुदेव ! आपके प्रति श्रद्धा है, इसलिए चला आता हूँ । आप मुझसे बोलें या न बोलें, इससे मेरी श्रद्धा में कोई फर्क नहीं पड़ता ।" यह सुनते ही रामकृष्ण परमहंस का दिल भर आया, उन्होंने नरेन्द्र को छाती से लगाते हुए कहा - "अरे पगले ! मैं तो तेरी परीक्षा ले रहा था कि तू उपेक्षा सह सकता है या नहीं ? तू मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ है । मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि तू इस धरती पर मानवता का अमर प्रहरी बनेगा ।" 1 यह है, परीक्षा द्वारा सुशिष्य के निर्णय का तरीका ! यह विधि यद्यपि काफी पेचीदा है, इसमें शिष्य की श्रद्धा सहसा डांवाडोल होने पर उलटा परिणाम भी आ सकता है । अनेक शिष्यों की एक साथ परीक्षा करते समय कई अविनीत शिष्यों द्वारा गुरु पर पक्षपात, द्वेष, या ईर्ष्या का दोषारोपण भी आ सकता है । शिष्यों की परीक्षा गुरु एक और सरल तरीके से भी लेता है, पर लेता है वह ढलती उम्र में, अपने उत्तराधिकारी के चुनाव के लिए । एक गुरु के तीन शिष्य थे । वृद्धावस्था में इन्द्रियों के क्षीण हो जाने के कारण वे अपने पट्ट पर किसी शिष्य को आसीन करके निश्चिन्त हो जाना चाहते थे । परन्तु यह उत्तराधिकार किस शिष्य को सौंपा जाय ? इस दृष्टि से एक दिन उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा - " मेरे लिए किसी गृहस्थ के यहाँ से आम की फांके ले आओ ।" गुरुजी के शब्दों को सुनकर वह जोर से हँसा और बोला- -"हैं, इस बुढ़ापे में भी आपकी हवस नहीं गई ? कब तक यह चटोरापन बना रहेगा ?" यों कह कर वह चल दिया । अब गुरुजी ने दूसरे शिष्य को बुलाकर भी यही इच्छा प्रकट की । वह प्रत्युत्तर दिये बिना ही आम लेने चल दिया । --- गुरुजी ने उसे वापस बुलाकर कहा - "अच्छा, अभी रहने दो, फिर देखा जाएगा ।" तीसरे शिष्य को भी गुरुजी ने यही आदेश दिया, तो उसने विनयपूर्वक पूछा - "गुरुदेव ! आम्रफल तीन प्रकार के होते हैं ? आपके लिए कौन-सा ले आऊँ ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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