Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 423
________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ४०३ आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्न से विणीए त्ति बुच्चई ॥' तद्दिट्ठीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे, तस्सन्नी, तन्निवेसणे।' मणोगयं वक्कगयं जाणित्तायरियस्स उ ॥ तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववायए । न पक्खओ, न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न जुजे ऊरुणा ऊरु, सयणे नो पडिस्सुणे।। आलवंते लवंते वा, न निसीएज्ज कयाइ वि । चइऊणमासणं धीरो, जओ जुत्तं पडिस्सुणे ॥ आसणगओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जागओ कयाइ वि । आगम्मुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो ॥६ नीयं सेज्ज गइं ठाणं, नीयं च आसणाणि य। नीयं च पाए वंदेज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलि ॥ संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि । खमेह अवराहं मे, वएज्ज न पुणोत्ति य ॥ प्रज्ञयाऽतिशयानोऽपि न गुरुमवज्ञायेत । जस्संतिए धम्मपयाइँ सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा मो मणसा य निच्चं ॥ अर्थात- "गुरु-आज्ञा को शिरोधार्य करने वाला, गुरु के समीप बैठने वाला और गुरु के इंगित-आकार को समझकर कार्य करने वाला शिष्य विनीत कहलाता "विनीत शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की दृष्टि के अनुसार चले, गुरु की निःसंगता का अनुसरण करे, उन्हें हर बात में आगे रखे, उनमें श्रद्धाभक्ति रखे और उनके पास रहे ।" "आचार्य (गुरु) के मन, वचन और काया के भावों को जानकर उन्हें वचन द्वारा स्वीकार करके काया के द्वारा तदनुसार उन्हें सम्पादन करे।" "आचार्यों (गुरुओं) के इतना सटकर पासे से पासा भिड़ाकर न बैठे, उनके आगे न बैठे, उन्हें पीठ करके न बैठे, उनके घुटने से घुटना अड़ाकर न बैठे तथा शय्या पर बैठा-बैठा ही उनके वचनों को न सुने ।" २ ५ १ उत्तराध्ययन अ० १/२ ४ उत्तरा० १/१८ ७ दशवकालिक ६२।१७-१८ ६ दशवकालिक ६।१।१२ आचारांग ५/४, ३ उत्तरा० १/४३ उत्तरा० १/२१ ६ उत्तराध्ययन १/२२ ८ नीतिवाक्यामृत १११२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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