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आनन्द प्रवचन : भाग ६
सिद्धसेन का हृदय-परिवर्तन होगया । वे शीघ्र ही पालकी से उतर गुरुदेव के चरणों में गिरे और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगने लगे।
___आचार्य वृद्धवादी बोले-'मैंने तुम्हें जैन सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराया। किन्तु मन्दाग्नि वाला मनुष्य जैसे गरिष्ठ भोजन को नहीं पचा सकता, वैसे ही तुम भी उत्कृष्ट जैन सिद्धान्तों को पचा न सके । जब तुम जैसे तेजस्वी प्रतिभासम्पन्न साधुओं का यह हाल है, तब दूसरे साधारण साधुओं की क्या स्थिति होगी? वे तुम्हारा अनुसरण करके तुम से दो कदम आगे बढ़ेंगे । अतः सन्तोषपूर्वक जीवनयापन करते हुए सिद्धान्तज्ञान को पचाओ, अपने चित्त में स्थिर करो।"
सिद्धसेन ने अपनी भूल स्वीकार की और गुरुदेव से उचित प्रायश्चित्त लेकर पुनः साधुता के सत्पथ पर चलने लगे।
यह है, सद्गुरु द्वारा उत्पथ पर चलकर कुशिष्य वनने से रोकने की युक्तिसंगत प्रक्रिया ! सुशिष्य कौन, कुशिष्य कौन ?
प्रश्न यह होता है कि सुशिष्य और कुशिष्य की पहचान कैसे की जाए ? अमुक साधक भविष्य में कुशिष्य बनेगा या सुशिष्य ? इसके लिए कौन-सा थर्मामीटर अपनाया जाए ? गुरुओं की यह तो जिम्मेवारी है कि वे शिष्य बनने के उम्मीदवार को पहले खूब देखें-परखें, तत्पश्चात् योग्य जचने पर उसे शिष्य बनाएँ, और शिष्य बनाने के पश्चात् भी उसे सारणा, वारणा, धारणा और पडिचोयणा समय-समय पर करके, समाचारी और साधुता का पूर्ण ज्ञान और अभ्यास कराएँ, उत्पथ पर जाने से भरसक रोकें इतना सब करने के बावजूद भी कई बार गुरु ठगा जाता है।
तथाकथित शिष्य के द्वारा विनय नामक कपटी साधु की तरह विनय, सेवाभक्ति आदरभाव, यतनापूर्वक साधुचर्या आदि देखकर गुरु शिष्य को सुशिष्य समझ लेता है, किन्तु आगे चलकर जब उस शिष्य का असली रूप उसके सामने आता है, तब पछताता है, तब वह 'दूध का जला हुआ छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है,' वाली कहावत चरितार्थ करता है । प्रत्येक सद्गुणी सुसाधु को भी वह बार-बार टोकता है, उसके कार्यों के प्रति शंकाशील हो जाता है, उसे हर बात में झिड़क देता है, चिड़चिड़े स्वभाव का बन जाता है । इसलिए एकान्तरूप से गुरुओं को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता । गुरुओं द्वारा इतनी सब जिम्मेवारियाँ निभाने के बावजूद भी यदि कोई साधु भविष्य में कुशिष्य बन जाता है तो उसमें उनका क्या दोष ?
पर एक बात कहना मैं उचित समझता है कि गुरु को अपने द्वारा दीक्षित शिष्य को झटपट सुशिष्य मान लेने या घोषित करने की उतावल नहीं करनी चाहिए। पहले उसे शास्त्रोक्त गुणों द्वारा परखना चाहिए। उत्तराध्ययन, दशवकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों में सुशिष्य के विनयादि गुण इस प्रकार बताये गये हैं
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