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आनन्द प्रवचन : भाग ६
आचा
वह गुरु, पिता व मित्र निन्दनीय या कुगुरु है, कुपिता है या कुमित्र है, जो अपने शिष्य, पुत्र या मित्र को हितशिक्षा तो नहीं देता किन्तु ईर्ष्यावश दूसरों या अनेकों के समक्ष उनके दोषों को ही प्रगट करता है । गुरु या गच्छाचार्य को शिष्य मूंड़ने से पहले शिष्य के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों को समझ लेना चाहिए। दीक्षा देने के बाद भी उसे शिष्यों की सारणा, वारणा और धारणा तथा पडिचोयणा का ध्यान रखना आवश्यक है । जो गुरु शिष्य को किसी भी व्रत, तप, नियम, संयम, समत्व आदि के सम्बन्ध में बताता ही नहीं, केवल अपने आमोद-प्रमोद या सुख-सुविधा में मग्न रहता है, वह गुरु अपने शिष्य से सुशिष्य बनने की आशा रखे, यह बेकार है। शिष्य को एक मुद्दत हो जाने या उम्र पक जाने के बाद फिर गुरु उसे सुशिष्य बनाना चाहे तो कैसे बन सकेगा ? इसमें दोष शिष्य का कम और गुरु का अधिक माना जाता है। क्योंकि गुरु तो गीतार्थ था, सब कुछ नियमोपनियम जानता था, फिर भी लापरवाही से उसने शिष्य को नहीं बताया, नहीं समझाया, फिर शिष्य उन्मार्गगामी बन जाता है, तब उसे उपालम्भ देता है, उसकी निन्दा करता है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका में शिष्य के उत्पथगामी होने में गुरु का ही दोष बताया गया है
आचार्यस्यैव तज्जाडयं यच्छिष्यो नाऽवबुध्यते ।
गावो गोपालकेनैव कुतीर्थेनावतारिताः ॥ "यदि शिष्य को ज्ञान नहीं होता या वह बेसमझ रह जाता है, तो इसमें आचार्य (गुरु) की ही जड़ता है, क्योंकि गायों को कुघाट में उतारने वाला ग्वाला ही है, गायें स्वयं नहीं।"
सचमुच, शिष्यों के कुपथगामी हो जाने पर बदमामी उनके गुरु की ही होती है, शिष्य तो यह कहकर बच जाता है कि मुझे गुरुजी ने सिखाया नहीं, परन्तु गुरु यह कहकर बच नहीं सकता कि मुझसे शिष्यों ने क्यों नहीं सीखा।
___ आचार्य वृद्धवादी जैसे कुछ दूरदर्शी, तत्त्वज्ञ एवं शिष्यलोभ से रहित गुरु ही अपने विद्वान् से विद्वान् शिष्य को उत्पथ पर जाते देखकर उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं, शिष्यमोह से रहित होकर । उनके जीवन की एक घटना है
आचार्य वृद्धवादी ने विद्वान् कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया, तब कुमुदचन्द्र उनके शिष्य बन गए। आचार्यश्री ने उनका नाम रखा-सिद्धसेन । आचार्यश्री ने सिद्धसेन को जैनदर्शन का पारंगत विद्वान् बनाकर उसे आचार्य पद दिया।
एक बार सिद्धसेन आचार्य स्वतन्त्र विहार करते हुए पूर्व की ओर कर्मारनगर में पहुँचे । वहाँ के राजा देवपाल ने उनका स्वागत किया । आचार्य सिद्धसेन ने राजा को धर्मोपदेश देकर अपना भक्त बना लिया।
उन्हीं दिनों कामरूप देश के राजा विजयवर्मा ने कर्मारनगर पर चढ़ाई कर दी,
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