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अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३४७ "तिविहा हई पन्नाता, संजहा-सम्माई, मिच्छरुई, सम्मामिच्छरुई।"
तीन प्रकार की रुचि कही गई है, वह इस प्रकार है-सम्यक्रुचि, मिथ्यारुचि और सम्यक्मिथ्यारुचि ।
महर्षि गौतम को यहाँ 'अरुचि' शब्द से 'सम्यकरुचि का अभाव' अर्थ ही अभीष्ट है। सम्यक्रुचि वह है, जो सम्यग्दृष्टिसम्पन्न हो, जिसे जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान हो, उन तत्त्वों की यथार्थता पर श्रद्धा हो । जो वीतरागप्रभु द्वारा उक्त वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखता हो, तथा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसा एवं मिथ्यात्वी संसर्ग आदि दोषों से दूर रहता है।
सम्यक्रुचि के भी दस भेद उत्तराध्ययन एवं स्थानांगसूत्र में सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में दस प्रकार की रुचियाँ बताई गई हैं
णिसग्गुवएसरुई, आणाई सुत्तबीयरुईमेव ।
अभिगम वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥ सरागसम्यग्दर्शन के दस प्रकार ये हैं(१) निसर्गरुचि-नैसर्गिक सम्यग्दर्शन, (२) उपदेशरुचि-उपदेशजनित सम्यग्दर्शन, (३) आज्ञारु चि-वीतराग द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, (४) सूत्ररुचि-सूत्र-ग्रन्थों को पढ़ने से उत्पन्न सम्यग्दर्शन,
(५) बीजरुचि-सत्य के एक अंश के सहारे अनेक अंशों में फैलने वाला सम्यग्दर्शन,
(६) अभिगमरुचि-विशाल ज्ञानराशि के आशय को समझने पर प्राप्त होने वाला सम्यग्दर्शन,
.. (७) विस्ताररुचि-प्रमाण और नय के विविध अंगों के बोध से उत्पन्न सम्यग्दर्शन,
(८) क्रियारूचि–क्रियाविषयक सम्यग्दर्शन, (९) संक्षेपरुचि-मिथ्या आग्रह के अभाव में स्वल्पज्ञानजनित सम्यग्दर्शन, (१०) धर्मरुचि-धर्मविषयक सम्यग्दर्शन ।'
इस प्रकार यहाँ रुचि का अर्थ-तत्त्वार्थों के विषय में तन्मयता है। ये सम्यक्दर्शन-सम्पन्न साधकों की विभिन्न रुचियाँ हैं । सम्यग्दृष्टि इन १० में से किसी भी रुचि को लेकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
१ विशेष विवेचन के लिए उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन की टीका देखिए ।
-संपादक
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