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कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आपके समक्ष कई दिनों से लगातार गौतमकुलक के जीवनसूत्रों पर प्रवचन करता आ रहा हूँ। पिछले तीन प्रवचनों में तीन सत्यों का रहस्योद्घाटन किया गया था, वे तीनों जीवनसूत्र एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस श्रेणी के जीवनसूत्रों में क्रमशः नैतिक तथ्य बताये गये हैं
१–अरुचिमान को परमार्थ-कथन करना विलाप है। २-परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा अर्थ कथन विलाप है। ३-विक्षिप्तचित्त के समक्ष अर्थ-कथन करना विलाप है। और अब इसी श्रेणी से सम्बन्धित चौथा जीवनसूत्र है
'बहू कुसीसे कहिए विलावो ।' 'कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप-तुल्य है।'
महर्षि गौतम ने इसमें साधक जीवन के एक महत्त्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन किया है । गौतमकुलक का यह चौंतीसवाँ जीवनसूत्र है। शिष्यलोलपता: कशिप्यों का प्रवेश-द्वार
आज भारतवर्ष में लगभग ७० लाख साधुओं की संख्या है । ये सब आत्मकल्याण के नाम पर या भगवद्भक्ति के नाम पर बनाये गये हैं, ऐसा कहा जाता है। पर इन ७० लाख साधुओं में असली साधु कितने होंगे ? मेरे ख्याल से इने-गिने साधु होंगे, जो साधुता की मूर्ति हों; क्योंकि वेश पहनने मात्र से या माला फिराने अथवा लोगों को लच्छेदार भाषण सुना देने मात्र से साधुता नहीं आ जाती । साधुता आती है-ममता छोड़ने से, समता धारण करने से और अहिंसा, सत्य आदि के पालन से तथा क्षमा आदि दस श्रमणधर्मों की साधना से । ऐसा गुणी साधु, सच्चा शिष्य, विनय आदि गुणों से ओत-प्रोत होता ही है। परन्तु साधुता के ये सुसंस्कार गुरुओं से मिलें, तभी ऐसा सुशिष्य तैयार हो सकता है। सुशिष्य कोई आसमान से नहीं टपकते, न कोई धरती से निकलते हैं, वे अपने-अपने परिवार से आते हैं, परिवार के संस्कारों का उनमें होना स्वाभाविक है, परन्तु यदि उन्हें परिवार से भी उत्कृष्ट एवं प्रबल संस्कार गुरुजनों से मिलें, तो वे पूर्वसंस्कार दबकर नवीन संस्कार उभर
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