Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 415
________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३६५ मैं साधु बन जाऊँगा। वे सन्तोजी महाराज के पास गये हैं। वे नहीं आ सकते । तुम कोई ठग मालूम होते हो।" वह बोला-- 'मैं ठग नहीं, तुम्हारा पति ही हूँ। मैं सन्तोजी महाराज के पास गया तो था, लेकिन वह रास्ता बहुत कठिन है। ठण्ड लग रही है, दरवाजा खोलो, मैं भूखा हूँ।" वह कहने लगी-"मेरे पति ऐसे कायर नहीं हैं कि उनके विचार बदल जाएँ। तुम किसी बुरे इरादे से आए हो । मैं दरवाजा नहीं खोलूंगी।" ज्योंज्यों दरवाजा खुलने में विलम्ब होने लगा, त्यों-त्यों वह बेचैन होकर मिन्नतें करने लगा कि "तुम दरवाजा खोलकर तो देखो, मैं वही हूँ। भूख और ठण्ड के मारे मेरी जान निकली जा रही है । मैं अब न तो तुम्हें कभी सताऊंगा और न ही धमकाऊँगा। मेरी जान बचाओ।" तब उसने दरवाजा खोलकर अन्दर लिया, कपड़े पहनने को दिये और गर्म-गर्म रोटी बनाकर खिलाई। तब से उसने गुस्सा करना छोड़ दिया। पतिपत्नी दोनों सुख से जीवनयापन करने लगे। हाँ, तो मैं कह रहा था कि अगर सन्तोजी पवार शिष्य-लोभी गुरु होते तो वे उस ब्राह्मण की गर्ज करते, उसे खिला-पिलाकर सन्तुष्ट करते, उसकी इच्छानुसार उसे सुख-सुविधा देते । परन्तु जब उसको अपने पूर्व-संस्कारवश गुस्सा आता तब वह गुरु की भी खबर ले लेता, उनकी भी अवज्ञा कर बैठता। इस तरह शिष्य-लोलुपता का दण्ड गुरु को भोगना पड़ता। अधिक सन्तान और अधिक शिष्य : अधिक दुःख गृहस्थ-जीवन का तो आपको अनुभव है। जिसके अधिक सन्तान होती है, वह उन्हें भलीभाँति संभाल नहीं सकता, शिक्षा-दीक्षा और सुसंस्कार दे नहीं सकता, इस प्रकार संतति-वृद्धि करने वाले पिता की सन्तान धीरे-धीरे अपराधी मनोवृत्ति की बन जाती है, स्वच्छन्द और अविनीत हो जाती है, इस प्रकार के एक या अनेक कुपुत्र पिता के लिए जैसे सिरदर्द हो जाते हैं, वे पिता की बात नहीं सुनते और सामना करने लगते हैं, वैसे ही शिष्यों की वृद्धि करना ही जिस साधु का लक्ष्य हो जाता है, वह जैसे-तैसे व्यक्तियों को मुंड लेता है, कई बार तो उन्हें प्रलोभन या किसी प्रकार का लोभ देकर मूंड लेता है, परन्तु एक तो अनेक शिष्य होने के कारण वह उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा साधुजीवन के संस्कारों की ओर पूरा ध्यान नहीं दे पाता, दूसरे अयोग्य और सुसंस्कारहीन होने से उनकी प्रकृति को बदलना बहुत कठिन होता है, फिर ऐसे शिष्यवृद्धि करने वाले साधु की वे ही शिष्य अवज्ञा कर बैठते हैं, अविनीत और स्वच्छन्द हो जाते हैं, कोई न कोई अयोग्य और निन्द्य कृत्य कर बैठते हैं । तब उन गुरुओं की आँखें खुलती हैं । फिर उन्हें उन कुशिष्यों के लिए पछताना पड़ता है। ऐसे मूर्व और अविनीत शिष्यों से पाला पड़ जाए तो गुरुजी का सारा होश ठिकाने ला दें और उनके गुरुपद के गर्व को भी चूर-चूर कर दें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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