Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 417
________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३६७ चाहिए, क्योंकि बड़े खाने वाले उस शिष्य की तरह वह उसकी विडम्बना ही करवाता है ।" . कुशिष्य : गुरु को हैरान और बदनाम करने वाले कई बार ऐसे कुशिष्य जिद्दी और दुर्विनीत होकर गुरु को हैरान कर बैठते हैं । वे फिर आगा-पीछा नहीं सोचते कि ऐसा व्यवहार करने से गुरुजी के हृदय को कितना आघात पहुँचेगा ? उनकी कितनी अवज्ञा और आशातना होगी ? उस आशातना से कितना भयंकर पापबन्ध होगा, और कितना भयंकर दुष्परिणाम भोगना होगा ? दवैकालिक सूत्र (अ० 8 ) और उत्तराध्ययन सूत्र ( अ० १ ) में शिष्य के द्वारा विनय और अविनय के सम्बन्ध में भलीभाँति बताया गया है । वहाँ शिष्यों पर अनुशासन करते समय गुरु हृदय के भावों को व्यक्त करते हुए कहा गया हैरमए पंडिए सासं, हयं भर्द व वाहए । बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्स व वाहए ॥ " जातिवान घोड़े को शिक्षा देने वाले शिक्षक की तरह विनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ गुरु आनन्दित होता है और बाल (अविनीत) शिष्य को शिक्षा देते समय गलित अश्व – दुष्ट घोडे को सिखाने वाले शिक्षक की तरह खिन्न - दुःखित होता है ।" इसे ठीक तरह से समझने के लिए एक दृष्टान्त लीजिए -- " एक गुरु-शिष्य विचरण करते हुए कहीं जारहे थे । रास्ते में एक नदी आई । नदी में काफी पानी था। शाम का समय था । संयोगवश एक बाई नदी के किनारे खड़ी किसी का इन्तजार कर रही थी । उसे नदी के उस पार जाना था । अकेले नदी पार करने में डूब जाने का भय था । रात को नदी के किनारे रहने को कोई जंगह न थी, अकेले रहने में डर भी था । भयभ्रान्त बाई ने वृद्ध आचार्यश्री से प्रार्थना की गुरुदेव ! मुझे भी कृपा करके नदी पार करा दीजिए । महिला की बात सुनकर कठोरहृदय शिष्य ने अपनी नजर जमीन में गड़ा दी, उसकी बात का कोई उत्तर न दिया । परन्तु सहृदय आचार्य से न रहा गया । आचार्यश्री ने उसे आश्वासन दिया और नदी पार करा देने को कहा । वैसे तो साधु को स्त्री स्पर्श करना वर्ज्य है । इसलिए वह बाई थोड़ी दूर तक तो नदी के पानी में साथ-साथ चली। आगे पानी गहरा था, इसलिए वह डूबने लगी तो आचार्यश्री ने उस पर दया करके उसे कंधे पर बिठा लिया और नदी पार करा दी । बाई अत्यन्त प्रसन्न होकर गुरुजी का एहसान मानती एवं कष्ट के लिए क्षमा माँगती चली गई । परन्तु शिष्य के मन में गुरुजी के इस व्यवहार के प्रति असंतोष था । उसने गुरुजी से कहा - " आपने उस रूपयौवना को कंधे पर बिठाकर नदी पार कराई, यह मुझे उचित न लगा । उसके रूपलावण्यमय देह का आपके कंधे और हाथों से स्पर्श हुआ, क्या इसमें ब्रह्मचर्यव्रत भंग का पाप नहीं हुआ ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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