Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 412
________________ ३६२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ बनने वाला प्रायः गुरु की खोज में नहीं जाता । गुरु बनने वाले ही प्रायः अपने शिष्यों की जमात बढ़ाने के लिए या अपनी या अपने संघाटक या सम्प्रदाय की महिमा एवं प्रभाव बढ़ाने के लिए शिष्यों की खोज में इधर-उधर परिभ्रमण करते रहते हैं । मैं किसी व्यक्ति विशेष पर आक्षेप नहीं कर रहा हूँ, न किसी की निन्दा और आलोचना से मुझे प्रयोजन है। मैं तो वर्तमान में गुरु-शिष्य बनने की जो वास्तविक परिस्थिति नजर आ रही है, उसी के बारे में संकेत कर रहा हूँ । केवल वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन करना ही मेरा प्रयोजन है । हाँ, तो जब साधक में गुरु बनने की ख्वाहिश होती है, येन-केन-प्रकारेण शिष्यों को बढ़ाने और जैसे-तैसे व्यक्तियों को मुंडकर चेले बनाने की चाह होती है, अथवा अनेक शिष्य मुंडकर अपना प्रभाव एवं महत्त्व बढ़ाने की धुन सवार हो जाती है, तब कुशिष्यों के लिए प्रवेशद्वार खुल जाता है। शिष्यलोलुपता एक ऐसी बीमारी है कि फिर गुरुपदाभिलाषी प्रायः यह नहीं देखता कि आने वाला व्यक्ति कितनी उम्र का है ? कैसे खानदान व संस्कारों का है ? अपने गृहस्थ-जीवन में उसका अपने परिवार एवं समाज से कैसा व्यवहार रहा है ? आध्यात्मिक साधना की उसमें कितनी योग्यता है ? शास्त्रीय या सैद्धान्तिक ज्ञान अथवा साधुता के विषय में उसका बोध कितना है ? उसका स्वभाव कैसा है ? इत्यादि । बहुत-से व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिनका अपने परिवार वालों के साथ रातदिन किसी न किसी बात पर झगड़ा चलता रहता है, वे परिवार में निकम्मे और निठल्ले बैठकर रोटियाँ तोड़ते रहते हैं, उनमें कुछ भी कार्य करने की योग्यता नहीं होती या वे किसी भी श्रमसाध्य कार्य को करना नहीं चाहते, कहीं भी जमकर नौकरी या व्यवसाय नहीं कर सकते, वे घर और परिवार से ऊबे हुए या अपने उत्तरदायित्वों से भागकर अथवा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करके आते हैं—साधु बनने के उम्मीदवार बनकर। ऐसे व्यक्ति न तो गृहस्थाश्रम में फिट होते हैं और न संन्यास आश्रम में ही । ऐसे व्यक्तियों को शिष्यलिप्सावश झटपट मूंड़ देने वाले गुरुनामधारी व्यक्ति ही प्रायः कुशिष्यों या अयोग्य शिष्यों को बढ़ाते हैं। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर सन्त कबीर ने एक दोहे के द्वारा चेतावनी दी है - सिंहों के लेहंडे नहीं, हंसों की नहीं पांत । लालों की नहीं बोरियाँ, साधु न चलें जमात ॥ इस कथन में किसी अंश तक सचाई है । दूरदर्शी गुरु द्वारा उम्मीदवार की परख जो दूरदर्शी गुरु होते हैं, वे अपने पास साधुपद के उम्मीदवार बनने वाले व्यक्ति की पूरी परख करते हैं, तभी आगे का कदम उठाते हैं । इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र की एक ऐतिहासिक घटना लीजिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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