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आनन्द प्रवचन : भाग ६
रुचि के ये सब भेद सम्यक्रुचि के अन्तर्यत आ जाते हैं। रुचि के पहले बताये हुए सभी अर्थों का समावेश भी सम्यक्रुचि में हो जाता हैं।
बात यह है कि इस प्रकार की सम्यक्रुषि से सम्पन्न व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या साधु, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, बालक हो या वृद्ध हो या युवक, धनी हो या निर्धन, साधारण हो या विशिष्ट, आध्यात्मिक ज्ञान या परमार्थबोध के योग्य पात्र है। इसके सिवाय भौतिक रुचि, मिथ्यारुचि या मिश्ररुचि का व्यक्ति चाहे कितना ही पढ़ा-लिखा हो, चाहे वह सत्ताधारी हो, चाहे श्रावक के घर में जन्मा हो, चाहे वह आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रिय, दीर्घायुष्य, स्वस्थ और सशक्त हो, चाहे वह आध्यात्मिक ग्रन्थों का बहुत पारायण करता हो, सम्यक्रुचि के अभाव में वह भी परमार्थ-बोध के लिए अपात्र है।
बहुत से लोग बाहर से बहुत ही सीधे-सादे, सरल, भोले-भाले और अनपढ़ होते हैं। परन्तु वे सम्यक्रुचि से सम्पन्न नहीं होने के कारण तत्त्वज्ञान के बोध-या उपदेश के अनधिकारी हैं। चाहे वह साधु-संतों की सेवा में बहुत आता हो, बहुत ही विनयभक्ति करता हो, लेकिन तत्त्वज्ञान के विषय में उसकी बिल्कुल रुचि या श्रद्धा नहीं है, तो वह परमार्थबोध के लिए अयोग्य है, क्योंकि उसे समझाने पर भी वह उन गड़ दार्शनिक बातों को समझ नहीं सकेगा, या तो वह उस समय नींद की झपकी लेगा, या वह ऊबकर जम्हाई लेने लगेगा।
एक रोचक उदाहरण लीजिए
मारवाड़ के एक गाँव में चौमासे के लिए संत पहुँचे । वहाँ के कुछ तथाकथित श्रावकों को पता लगा तो वे दर्शनार्थ आये । दूसरे दिन सुबह व्याख्यान का समय हुआ तो मुनिवर ने वहाँ के अग्रगण्य श्रावकों से पूछा- "कहो साहब ! कौन-सा शास्त्र बांचा जाए ?"
___ “कोई नया ही शास्त्र होना चाहिए, महाराज !" जानकर कहलाने वाले श्रावकों ने कहा।
"क्या भगवती सूत्र शुरू किया जाय ?" महाराज साहब ने पूछा। इस पर वे बोले- "सुणो परो महाराज !"
"तो क्या आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना, नन्दी आदि में से कोई शास्त्र सुनाया जाए ?"
लालबुझक्कड़जी बोले- "ये सब सुने हुए हैं, कोई नया शास्त्र होना चाहिए।"
मुनिजी ने कई शास्त्रों के नाम गिनाये; परन्तु हर बार उनका यही उत्तर होता- 'ओ भी सुणो परो, बाबजी !"
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