________________
३७०
आनन्द प्रवचन : भाग ६
सद्धर्म के गूढ़ तत्त्वों का रहस्योद्घाटन कर लिया है । अब मैं आपके राज्य का धर्माचार्य बनना चाहता हूँ, इसी कामना से यहाँ आया हूँ।"
सम्राट् भिक्षु की कामना सुन किंचित् मुस्कराकर बोला- "आपकी सदिच्छा मंगलमयी है, लेकिन मेरी प्रार्थना है कि आप सभी धर्मग्रन्थों की एक आवृत्ति और कर डालें।"
भिक्षु मन ही मन बड़ा क्षुब्ध हुआ, पर सभ्राट् के आगे व्यक्त न कर सका। सोचा-"क्यों न एक आवृत्ति और करके मुख्य धर्माचार्य का पद प्राप्त कर लूं।"
दूसरे वर्ष जब वह सम्राट के सामने उपस्थित हुआ तो सम्राट् ने फिर कहा"भगवन् ! एकान्तसेवन के साथ एक बार और धर्मग्रन्थों का पारायण कर लें तो श्रेयस्कर होगा।"
भिक्षु के क्रोध की सीमा न रही। अपमानदंशपीड़ित भिक्षु दिनभर भटकता भटकता शाम को एक सुनसान नदी पट पर आया, रात्रि प्रारम्भ होते ही नियमानुसार सान्ध्य प्रार्थना में बैठ गया। आज की प्रार्थना में उसे अपूर्व आनन्द आया। शब्दों के नये-नये अर्थ चेतना पर स्फुरित होने लगे । वह रातभर अपूर्व मस्ती में डूबा रहा। दूसरे दिन सुबह होते ही धर्मशास्त्र लेकर बैठ गया। लगातार सात दिन तक इसी प्रकार शास्त्रपाठों के नये-नये अर्थों की स्फुरणा अपनी अनुभूति और युक्ति के साथ उसकी चेतना में होती रही।
सातवें दिन सम्राट् तिङ मिङ स्वयं उन्हें प्रार्थना करने आए--"भंते ! पधारिए । धर्माचार्य के आसन को सुशोभित कीजिए।" परन्तु भिक्षु की धर्माचार्य बनने की महत्त्वाकांक्षा अब समाप्त हो चुकी थी, पाण्डित्य और अध्यात्मज्ञान के अहंकार का स्थान अब आत्मज्ञान के आनन्द ने ले लिया था। मंद मुस्कान के साथ भिक्षु ने कहा- "राजन् ! अब मेरी महत्त्वाकांक्षा धर्माचार्य बनने की नहीं रही। सद्धर्म, अध्यात्मज्ञान आदि आचरण की वस्तुएँ हैं, कोरे उपदेश की नहीं। आचरणपूर्वक उपदेश किसी जिज्ञासु को अहंकाररहित होकर दिया जाए तो ठीक है।" । बन्धुओ ! महर्षि गौतम ने इसी आशय को लेकर इस जीवनसूत्र में कहा है
'असंपहारे कहिए विलावो' क्या आध्यात्मिक और क्या व्यावहारिक सभी क्षेत्रों में बिना अनुभव के कोई बात किसी को कहना विलापमात्र ही होती है । इस पर आप सभी गहराई से मननचिन्तन करें और जीवन में आचरित करने का पुरुषार्थ करें।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org