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विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप
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के लायक ही रहता है और न ही आत्मसाक्षात्कार, या परमात्मा के दर्शन के योग्य रहता है । इस पर एक दृष्टान्त लीजिए
___एक चोर किसी संत के पास जाया करता था और प्रतिदिन वह उनसे ईश्वर-दर्शन व आत्म-साक्षात्कार का उपाय पूछा करता था। महात्माजी उसे यह कहकर टाल देते थे कि कभी अवसर आएगा तब कहूँगा।
एक दिन चोर ने महात्मा से बहुत आग्रह किया-ईश्वर-दर्शन एवं आत्मसाक्षात्कार का। महात्मा ने सामने वाली पर्वत की ऊँची चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा- “यदि तुम मेरे साथ वहाँ तक ६ पत्यर सिर पर रखकर चल सको तो वहाँ पहुँचकर मैं तुम्हें दोनों के उपाय बता सकता हूँ।" चोर तैयार हो गया। महात्मा ने उसके सिर पर ६ पत्थर रख दिये और पीछे-पीछे चले आने को कहकर स्वयं आगे चलने लगे। चोर कुछ ही दूर चल कर हांफने लगा उसने कहा-"महात्मा जी बोझ बहुत है । इस भार को लेकर मैं आगे नहीं चल सकता।" संत ने एक पत्थर उतार दिया। चोर फिर कुछ दूर चला कि लड़खड़ाने लगा, तब महात्मा ने एक पत्थर और उतार दिया। यही क्रम आगे भी चला । यों अन्त में सभी पत्थर उतार देने पड़े तब कहीं चोटी तक साथ चलने में वह समर्थ हो सका। चोटी पर पहुँचकर संत ने कहा- "जिस प्रकार तुम ६ पत्थर सिर पर रखकर इस पर्वत की चोटी तक पहुँच सकने में असमर्थ रहे, उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन ६ मनोविकाररूप पाषाणों का बोझ ढोता हुआ विक्षिप्तचित्त व्यक्ति परमात्मदर्शन और आत्मसाक्षात्कार करने में सफल नहीं हो सकता। यदि इन तक पहुँचना हो तो पाप विकारों के पत्थर अपने चित्त से उतार कर फैंकने ही होंगे।"
वास्तव में देखा जाए तो विक्षिप्तचित्त का मतलब ही है-पापभाराक्रान्त चित्त । कुत्ते का चित्त भी उस पापभाराकान्त व्यक्ति से अच्छा है । एक बार किसी सभा में यह चर्चा चल पड़ी कि मनुष्य श्रेष्ठ है या कुत्ता ? किसी ने कहा- "मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है । क्योंकि वह सबको वश में कर लेता है।" किसी ने कहा"कुत्तों का संयम मनुष्यों में कई गुना अच्छा होता है, इसलिए मनुष्य कुत्ते से भी नीच है।" इस विवाद के निर्णायक थे—'हुसैन' । हुसैन ने कहा- "जब तक मैं अपना चित्त एवं जीवन पवित्र कार्यों में लगाये रखता हूँ, तब तक मैं देवों के करीब हूँ, किन्तु जब मेरा चित्त एवं जीवन पाप के भार से दब जाता है, तब कुत्ते भी मुझ जैसे हजार हुसैनों से अच्छे होते हैं।"
बन्धुओ ! आप समझ गये होंगे कि विक्षिप्तचित्त में उपदेश या तत्त्वज्ञान का बोध क्यों नहीं टिक पाता? - दूध फट जाने पर उसमें कितना ही जामन डालिए, दही नहीं जमेगा, या उसे कितना ही मथिये, मक्खन नहीं निकलेगा, इसी प्रकार चित्त के बिखर जाने या उसके परमाणुओं के बिखर जाने, या उसके अस्थिर हो जाने पर उसमें कितने ही तत्त्वज्ञान
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