Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 402
________________ ३८२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ के शब्द डालिए, वे टिकेंगे नहीं, उनमें से कुछ भी सार नहीं निकलेगा, वह बेकार का प्रलाप होगा, महर्षि गौतम के शब्दों में। जैसे तपे हुए तवे पर दो-दो चार-चार छींटे दिये जाएँ तो उससे वे छींटे ही जल जाते हैं, तवे पर कोई असर नहीं होता। इसी प्रकार क्रोधादितप्त विक्षिप्तचित्तरूपी तवे पर भी उपदेश के छींटों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे शब्दों के छींटे स्वतः ही सूख जाते हैं, ऊपर-ऊपर ही उड़ जाते हैं, विक्षिप्तचित्त व्यक्ति के दिल-दिमाग में नहीं पहुँचते, टिकने का तो सवाल ही कहाँ ? विक्षिप्तचित्त बदलता रहता है भगवती सूत्र में एक प्रश्नोत्तर' है- "कौन पलटता है ?" तो वहाँ उत्तर इस प्रकार दिया गया है-"जो अस्थिर है वह पलटता है, परिवर्तित हो जाता है।" आपका चित्त विक्षिप्त होता है, तो अस्थिर हो ही जाता है, वह किसी एक विषय पर टिक ही नहीं पाता, विषय को बार-बार बदलता रहता है, इसका कारण है-उसके चित्त में सर्वत्र कम्पन है, इन्द्रियों और अन्य अवयवों में भारी कम्पन है। पूर्ण निष्कंपता स्थिरचित्त की निशानी है जो बदलती नहीं। किन्तु अस्थिरचित्त व्यक्ति कम्पनों का तूफान आने से अपने आत्मस्वरूप के या तत्त्वज्ञान के कथन को दूर से ही फैंक देता है, वह अपने दिल-दिमाग के निकट आने ही नहीं देता । अस्थिरचित्त व्यक्ति कैसे बदलता रहता है ? इसे एक उदाहरण द्वारा समझा दूं युद्ध के मोर्चे पर नियुक्त सैनिक ने सोचा-यह भी कोई जिंदगी है। हर जगह रक्तपात और बन्दूकों की धांय-धांय ! वह सैनिक सेवा से भागकर गाँव आ पहुँचा । वहाँ उसने खेती करनी शुरू की। यहाँ भी हजार संकट । समय पर बीज और खाद की व्यवस्था नहीं हो पाती, फसल पककर तैयार होती तो गांव के महाजन अपना पैसा वसूल करने के लिए खलिहान पर आ धमकते । न रात को चैन, न दिन को आराम । कभी जंगली पशुओं से फसल की रक्षा के लिए रात-रातभर घर से बाहर रहना और कभी हरी-भरी फसल को ओले, पाले से हानि पहुँचती तो वह सिर पर हाथ रखकर भाग्य को कोसने लगता। उसे खेती की झंझट बिलकुल पसंद न आई । गाँव के नीरस लगने वाले जीवन को छोड़कर वह शहर की चकाचौंध में आ गया, ले लिया एक मकान किराये पर । कारखाने में नौकरी कर ली। नियमित समय पर जाना और ८ घंटे कड़ी मेहनत करके घर लौटना । इतने परिश्रम के बाद उसका शरीर थककर चूर-चूर हो जाता, कहीं घूमने-फिरने की इच्छा न होती। महीने के बाद बंधी वधाई तनख्वाह की रकम मिलती, उसी पर गुजारा करना पड़ता था। कुछ समय आराम से बीता, फिर चित्त डगमगाने लगा। शहरी जीवन का आकर्षण समाप्त होगया। एक रात को स्वप्न में सुनाई दिया–“यों विक्षिप्तचित्त बनकर १. अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ -भगवती सूत्र १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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