Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 397
________________ विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप ३७७ "भंते क्या इस चट्टान पर किसी का शासन सम्भव है ?' बुद्ध ने शिष्य की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा-"पत्थर से कई गुनी शक्ति लोहे में होती है । इसीलिए तो लोहा पत्थर को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देता है।" शिष्य ने पूछा- "तो फिर लोहे से भी बढ़कर श्रेष्ठ कोई और वस्तु है ?" बुद्ध बोले-"क्यों नहीं ? अग्नि है, जो लोहे के अहं को गलाकर उसे द्रवरूप में परिणत कर देती है।" शिष्य-"अग्नि की विकराल ज्वालाओं के सामने तो किसी की क्या चल सकती होगी, भंते ?" बुद्ध—“वह केवल जल है, जो अग्नि से टक्कर लेकर उसे बुझा सकता है, उसकी गर्मी को शीतल कर सकता है।" शिष्य-"मेरे खयाल से जल से टकराने की तो किसी में ताकत नहीं होगी ? क्योंकि प्रतिवर्ष बाढ़ तथा अपार जलवृष्टि के रूप में जल प्रचुर धन-जन की हानि कर देता है।" बुद्ध—“ऐसा क्यों सोचते हो, वत्स ! दुनिया में एक से एक बढ़कर शक्तिशाली पड़े हैं । जल से बढ़कर शक्तिशाली वायु है, जिसका प्रवाह जल-धारा की दिशा ही बदल देता है, तूफान के रूप में आने पर जल को नचा देता है। संसार का प्रत्येक प्राणी वायु के महत्त्व को जानता है, क्योंकि इसके बिना जीवन का आधार ही कौनसा है ?" शिष्य-"भंते ! जब प्राणवायु ही जीवन है, तब इससे बढ़कर महत्त्वपूर्ण किसी वस्तु के होने का कोई सवाल ही नहीं उठता।" तथागत बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा-"तुम भूल रहे हो, वत्स ! मनुष्य के एकाग्रचित्त से समुत्पन्न संकल्प-शक्ति द्वारा वायु ही क्या, पूर्वोक्त सभी वस्तुएँ वश में की जा सकती हैं, की जाती रही हैं। अतः एकाग्रचित्त मानव की संकल्प-शक्ति ही सर्वोपरि है। मनुष्य ने जब इस धरती पर आकर आँखें खोलीं, तब उसके पास क्या था ? माता के उदर से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर आया, क्या उस समय उसके पास वस्त्र, मकान, आभूषण या अन्य कोई सामान था ? आज जो कुछ उसके पास दीख रहा है, उसमें से कुछ भी तो नहीं था। केवल एक छोटा-सा नंगा तन था। फिर ये सब साधन कहाँ से आ गए ? ये बड़े-बड़े आलीशान भवन, ये कल-कारखाने, ये जलयान, विमान या धूम्रयान आदि कहाँ से आए ? जो कुछ सभ्यता, संस्कृति, दर्शन और धर्म का विकसित गंभीरतम चिन्तन हुआ है, वह कहाँ से पैदा हुआ है ? यह सब एकाग्रचित्त की संकल्पशक्ति का ही सर्जन है । इसलिए मैं कहता हूँ कि चित्त की एकाग्रता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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