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विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं एक अन्य सत्य का उद्घाटन करना चाहता हूँ, जो प्रत्येक साधक के लिए जीवन में उपयोगी है । नैतिक दृष्टि से भी इसका उपयोग जीवन में है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी। इसे अपनाए बिना साधक मानसिक क्लेश से संतप्त होगा और निमित्तों को भी शायद कोसने लगेगा । गौतम कुलक का यह तेतीसा जीवनसूत्र है, जिसका महर्षि गौतम ने इस प्रकार उल्लेख किया है
विक्खित्तचित्त कहिए विलावो' .. 'जिसका चित्त विक्षिप्त हो, उसे तत्त्वज्ञान की अथवा अन्य किसी नैतिक जीवनतत्त्व की बात कहना बेकार है, विलाप है।'
विक्षिप्तचित्त क्या और क्यों ? हमारे शरीर के साथ अन्तःकरण का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। अन्तःकरण के वैदिक दर्शनों में चार अंग माने गये हैं—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । उनमें से चित्त अन्तःकरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जैनदर्शन मन के ही अन्तर्गत शेष तीनों का समावेश कर लेता है ।
हाँ, तो चित्त का काम है-चिन्तन करना । किसी कार्य को करने से पहले उसका चिन्तन चित्त से किया जाता है। अगर चित्त ठीक हो, एकाग्र हो, समाहित हो, अवधानयुक्त हो, इधर-उधर बिखरा हुआ न हो तथा किसी एक चिन्तन के लिए अभीष्ट वस्तु में एकाग्र हो तो उस कार्य का चिन्तन अच्छा होता है । और जिस कार्य के विषय में अच्छा चिन्तन होता है, वह कार्य भी ठीक होता है। इसलिए क्या आध्यात्मिक और क्या व्यावहारिक, सभी क्षेत्रों में चित्त को एकाग्र करना दत्तचित्त होना, बहुत ही आवश्यक माना गया है।
____एक व्यक्ति बहुत ही सुन्दर वेशभूषा में सुसज्जित है, तेल, इत्र, आदि लगाये हुए है, उसका शरीर-सौष्ठव भी अच्छा है, किन्तु उसका चित्त किसी चिन्ता से व्याकुल है, या उसका चित्त किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग के कारण शोकाक्रान्त है, अथवा उसको किसी कार्य में असफलता मिली है, किसी ने भारी अपमान कर दिया है, इसके कारण चित्त में उच्चाट है, उसका चित्त घर के या व्यवसाय के
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