Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 388
________________ ३६८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अंधा । हम सब इसके हितैषी हैं । हमने इसे तरह - तरह की युक्तियों, तर्कों और अनुमानों तथा शास्त्रवचनों के आधार पर समझाया कि प्रकाश है, लेकिन यह किसी भी तरह से नहीं मानता । इसकी दलीलों के आगे हम निरुत्तर हो जाते हैं । यह कहता है - प्रत्यक्ष छुआकर दिखाओ तो मैं मानूं कि प्रकाश है । हम इसे प्रकाश का कैसे स्पर्श कराएँ ? यह कहता है, जाने दो, स्पर्श कराके न बताओ तो, मेरे कान हैं, प्रकाश में आवाज करो तो मैं सुन लूं, अथवा मुझे चखाकर दिखाओ या प्रकाश में गंध हो तो मैं सूंघकर पता लगा लूं । हमारे पास इनका कोई उपाय नहीं है । प्रकाश सिर्फ आँखों से देखा जा सकता है और आँख इसके पास हैं नहीं । इसलिए यह हमसे कहता है कि तुम सब अंधे मालूम होते हो और मुझे अंधा सिद्ध करने के लिए तुम प्रकाश की बातें करते हो। इसलिए हम हार थककर इसे आपके पास लाए हैं । सम्भव है, आप इसे प्रकाश के बारे में समझा सकें । " तथागत बुद्ध ने कहा- - " मैं इसे समझाने की गलती नहीं करूँगा । मेरा समझाना प्रलापमात्र ही सिद्ध होगा । तुम लोग इसे गलत जगह ले आए हो। इसे ले जाओ किसी चिकित्सक के पास, जो इसकी आँख का उपचार कर सके । इसे उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है । तुम्हारे और मेरे समझाने से इसकी समस्या हल नहीं होगी, इसकी समस्या हाल होगी आँख ठीक होने से । फिर तो यह स्वतः प्रकाश को देख - जान लेगा ।" आगन्तुकों को बुद्ध की बात ठीक लगी । वे उसे एक नेत्र चिकित्सक के पास ले गए और भाग्यवश कुछ महीनों में उसकी आँख ठीक हो गई । अब वह स्वयं प्रकाश को देखने लगा था । बुद्ध के पास जाकर उसने सविनय कहा - "भंते ! मैं गलती पर था । प्रकाश तो था, पर मेरे नेत्रों में प्रकाश नहीं था कि उसे देख सकूँ कुंछ देख सकता हूँ ।" । अब मैं स जब तक अनुभूतियुक्त प्रकाश न हो, प्रकाश के दावेदार न बनो निष्कर्ष यह है कि विवेक का प्रकाश तो सबके पास होता है, लेकिन कुछ प्रकाश के दावेदार दूसरों के प्रकाश को प्रकाश न बताकर स्वयं जो प्रकाश दे रहे हैं, उसी को प्रकाश मानने की धृष्टता कर रहे हैं । गौतम महर्षि ने यही संकेत किया है कि यदि तुम्हारे पास अनुभव का प्रकाश न हो तो दूसरों को प्रकाश देने या दिखाने का दावा मत करो, न दिखाओ । बुद्ध की तरह उसे अपना अनुभव दे दो ताकि उसके विवेक नेत्र खुल सके । एक विद्वान् था, वेदों और शास्त्रों में पारंगत । उसने अनेक शास्त्र घोंट रखे थे । जब देखो तब, उसकी जिव्हा पर शास्त्रवचन होते । इस उपलब्धि का उसे बहुत गर्व था । वह सदा एक जलती मशाल अपने हाथ में लेकर चलता । चाहे दिन हो या रात, यह मशाल उसके साथ हरदम रहती थी । जब कोई उससे इसके रखने का कारण पूछता तो वह कहता - "संसार अंधकार से व्याप्त है । मैं इस मशाल को लेकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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