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अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३४६ मुनिजी ने उन ज्ञानलेवदुर्विदग्धों की ज्ञानगरिमा की परीक्षा के लिए पूछा"श्रावकजी ! पांचों इन्द्रियों में से आप में और मेरे में कितनी-कितनी इन्द्रियाँ पाई जाती हैं ?"
इस बार लालबुझक्कड़ श्राबंक ने अनोखा उत्तर दिया- "एकेन्द्रिय में बापजी आप हैं, बेइन्द्रिय में मैं हैं।"
महाराजश्री ने मन ही मन मुस्कराते हुए पूछा-"कैसे-कैसे ?"
"आप एकेन्द्रिय ई वास्ते हो कि आप एकला हो, हूँ बेइन्द्रिय ई वास्ते हूँ के हुँ लुगाई सहित हूँ।"
"और भी कोई पहिचान है, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय की ?" मुनि जी ने पूछा।
"हाँ है, थारे माथे पाग कोनी, इण सुथे एकेन्द्रिय हो, म्हारे माथे पाग है, जिणसू हुँ बेइन्द्रिय हूँ।" लालबुझक्कड़जी ने कहा।
इन लालबुझक्कड़ श्रोताओं का अद्भुत ज्ञान देखकर मुनिजी ने व्याख्यान बंद कर दिया । श्रोताओं ने ऐसा करने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा--मेरे पास जितने भी शास्त्र हैं, सब आप लोगों के सुने हुए हैं। अब तो आगामी चौबीसी में महापद्मप्रभ महाराज (श्रेणिक का जीव) प्रथम तीर्थंकर होंगे, वे नये आगम कहेंगे, वे ही नये शास्त्र होंगे । तभी नये शास्त्र वांचे जा सकते हैं।"
बन्धुओ ! ऐसे अर्ध विदग्ध लोग न तो जिज्ञासु होते हैं, न ही श्रद्धालु, वे तो वक्ता की परीक्षा लेने तथा अपने अल्पज्ञान का अहंकार प्रदर्शित करने हेतु ही अध्यात्म तत्त्वज्ञान सुनने आते हैं। उनकी रुचि सम्यक् नहीं होती वे सिर्फ नामधारी श्रावक होते हैं। श्रावक का अर्थ है-सम्यक्रुचिपूर्वक अध्यात्मज्ञान का श्रवण करने वाला।"
अरुचिवान को कुछ भी हित की बात कहना विलाप है सम्यक्रुचिसम्पन्न के अतिरिक्त जितने भी व्यक्ति होते हैं, वे सब अध्यात्मजगत् में अरुचिवान माने जाते हैं, चाहे उनकी रुचि मिथ्याज्ञान में, सांसारिक पदार्थों के ज्ञान में या इन्द्रियविषयों की जानकारी में हो । रुचि के विभिन्न अर्थों को देखते हुए अरुचिवान के विभिन्न अर्थ फलित होते हैं । अरुचिवान अध्यात्मजगत् की दृष्टि से वह नहीं है, जिसमें किसी प्रकार की जिज्ञासा, तीव्रता, लगन, उत्साह, दिलचस्पी, प्रीति, उत्कण्ठा, उत्सुकता, श्रद्धा, परमश्रद्धा, प्रतीति या दृष्टि न हो, जिसकी रुचि में निर्मलता न हो, जिसमें तत्त्वज्ञान श्रवण में तन्मयता न हो, जिसे अध्यात्मज्ञान के प्रति कोई श्रद्धा न हो। ऐसे निराश, हताश, अविश्वासी, निरुत्साही व्यक्ति की रुचि अध्यात्मज्ञान या परमार्थ बोध में कतई नहीं होती।
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