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यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३
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करना, पुरुषार्थ करना और दूसरा है-असंयम, पाप से बचना । पाप से बचने के लिए प्रयत्न करने से पूर्व साधक को यह देखना पड़ेगा कि पाप कहाँ से आता है ? इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, वाणी आदि अपने-आप में पाप रूप नहीं हैं। वे स्वयं जड़ हैं, चेतन की शक्ति से प्रेरित होती हैं। जब मनुष्य इन्द्रियों, मन, बुद्धि, वाणी और काया को अयतना से प्रेरित करता है, खुली छूट दे देता है, तब ये दूसरों को हानि पहुँचाती हैं, दुःखित करती हैं, पीड़ित करती हैं, दूसरे प्राणियों के प्राणहरण कर लेती हैं, तब उन हिंसा, असत्य आदि के कारण वह पापकर्म को बाँध लेता है। किन्तु यदि मनुष्य यतनापूर्वक चलता है तो पापकर्म से अपनी आत्मा को बचा लेता है, यतनापूर्वक चलने वाला व्यक्ति निष्पाप बनने के लिए एक ओर यतना (सावधानी) के कारण असंयम रूप पाप से बच जाता है, दूसरी ओर वह पाप आने के कारणों को रोककर संवरनिर्जरारूप धर्म में संयम में प्रवृत्त होता है ।
___सभी धर्मों एवं सामाजिक व्यवस्थाओं में निष्पाप या पापमुक्त होना लक्ष्य की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम अनिवार्य माना गया है। उपनिषद्कार ने भी प्रभु से प्रार्थना की है
विश्वानि दुरितानि परासुव' "हे प्रभो ! हमें समस्त पापों से दूर हटा।"
निष्पाप होकर ही साधक 'शुद्ध अपाप विद्धं' (शुद्ध एवं पाप से दूर) परमात्मा या शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।
पाप अनेकों प्रकार से दृश्य-अदृश्यरूप में यतनारहित अविवेकी साधक के जीवन में प्रविष्ट हो जाता है, बल्कि एक बार एक पाप प्रविष्ट हो जाता है तो फिर बार-बार बेधड़क होकर वह अपनी गतिविधि चालू रखता है। कई बार साधु भ्रमवश यह समझने लगता है कि 'मैंने साधुवेश धारण कर लिया, घरबार कुटम्ब-कबीला, जमीन-जायदाद आदि सबका त्याग कर दिया और पंच महाव्रतों का पाठ पढ़ लिया, इसी से मैं अब पापों से रहित हो गया हूँ, मुझमें अब पाप घुस ही नहीं सकता, मैं तो पवित्र निष्पाप हूँ !' परन्तु उसकी ऐसी गफलत और भ्रान्ति के अंधेरे में पाप इन्द्रियों, मन, वाणी और काया के माध्यम से उसके जीवन में चुपके से जाने-अजाने प्रविष्ट हो जाते हैं । अयतना ही वह कारण है, जिससे उसकी गफलत एवं लापरवाही का लाभ उठाकर पाप घुस जाते हैं। कभी तो वे स्वार्थपरता, ममत्व, अहंकार, बड़प्पन के भाव, परद्रोह, राग, द्वेष, मोह, घृणा, अमर्यादित वासनाएँ आदि मानसिक पापों के रूप में आ धमकते हैं। कभी वाणी से दूसरों पर कटु आक्षेप, दोषारोपण, कटुशब्द, व्यंग्य, या निन्दा-चुगली, असत्यभाषण या द्वयर्थक भाषण आदि वाचिक पापों के रूप में तो कभी दुष्कृत्य, हिंसा आदि दुष्कर्म, दुराचार, या अनाचार के रूप में पाप जीवन में प्रविष्ट हो जाता है।
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