________________
हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर ३०१ "माँ ! मेरी दोनों आँखें मत फोड़ डालना।" देवी बोली- “मैं अपने वचन से कैसे फिर सकती हैं ?" उसने लोभी की दोनों आँखें फोड़ डालीं । वह अंधा हो गया।
लोभी को अन्धा बनाने के लिए ईर्ष्यालु काना हो गया। यह एकदम निकृष्ट कोटि की स्वार्थवृत्ति है, जिसमें अपने स्वार्थ का विघटन करके भी दूसरे स्वार्थ का विघटन है। इस जघन्यतम स्वार्थी मनोवृत्ति से समाज एकदम क्रूर, निर्दय एवं निष्ठुर बन जाता है।
योगिराज भर्तृहरि ने नीतिशतक में इन चारों कोटि के व्यक्तियों का परिचय देते हुए कहा है
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान परित्यज्य ये। सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये॥ तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये।
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं, ते के न जानीमहे ॥ .. 'प्रथम कोटि के वे परमार्थी सत्पुरुष हैं, जो अपने स्वार्थों का परित्याग करके दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते हैं, दूसरी कोटि के सामान्य व्यक्ति हैं, जो अपने स्वार्थ के साथ विरोध न हो, ऐसे परार्थ-साधन के लिए उद्यत रहते हैं । तीसरी कोटि के वे नरराक्षस हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के हित को नष्ट कर देते हैं, और चौथी कोटि के वे अधम व्यक्ति हैं जो बिना ही प्रयोजन के व्यर्थ ही दूसरों के हित को नष्ट कर डालते हैं। पता नहीं, ये कौन हैं ? इन्हें क्या नाम दें? यह समझ में नहीं आता।'
ऐसे लोगों का स्वार्थ तो सीमा लांघ जाता है। ऐसे लोग तो देवता और भगवान से भी स्वार्थ का सौदा कर बैठते हैं।
. एक बार एक लोभी लाला मीठे खजूर खाने के लिए पेड़ पर जा चढ़ा । चढ़ते समय खजूर की मधुरता के आकर्षण के कारण चढ़ गया, लेकिन उतरते समय भय से अधीर हो उठा कि कहीं गिर पड़ा तो चकनाचूर हो जाऊँगा । अतः लगा भगवान से प्रार्थना करने—प्रभो ! मुझे सकुशल नीचे उतार दो। अगर मैं सकुशल नीचे उतर गया तो आपको पाँच सौ रुपयों का प्रसाद चढ़ाऊँगा। इसी चिन्तन में डूबताउतराता वह सावधानी से नीचे उतर गया। परन्तु अब उसकी नीयत बदल गई। स्वार्थ ने जोर मारा, भगवान को भी धोखा देने की सूझी—“प्रभो ! अब आप आपके
और मैं मेरे । न तो मुझे खजूर पर चढ़ना है और न ही आप पर कुछ चढ़ाना है।" यह है निकृष्ट स्वार्थी मनोवृत्ति ! इसीलिए तो एक भुक्तभोगी अनुभवी कहता है
देखा सोच-विचार, दुनिया मतलब की, मतलब की... ॥ध्र व॥ जब तक जिसका काम है सरता, तब तक उसका दम है भरता। रहे सदा वो जी-जी करता, मतलब का व्यवहार ॥दुनिया॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org