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बुद्धि तजती कुपित मनुज को
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मुझे तो इन ४६६ सौतों को उनके पितृपक्ष के लोगों सहित समाप्त करना असम्भव सा प्रतीत होता है।"
___ "अच्छा, यह बात है ? देखना, बन्दा क्या करता है ?" यों कहता हुआ सिंहसेन उसी समय वहाँ से चल दिया।
· अहंकार और मोह के आवेश में विवेकमूढ़ बना हुआ राजा सिंहसेन मन ही मन युक्ति सोचकर एक विशाल लाक्षागृह का निर्माण कराने लगा। जब लाक्षागृह बन कर तैयार हो गया तो वहाँ उसने एक महोत्सव के आयोजन की घोषणा करवाई । उस महोत्सव में भाग लेने के लिए उन ४६६ रानियों और उनके समस्त पीहर वालों को भी आमंत्रित किया गया। खूब धूम-धाम से महोत्सव सम्पन्न हुआ। रात हुई । जब सभी निद्रामग्न हो गए, तब उस लाक्षागृह में चुपचाप आग लगवा दी गयी। देखते ही देखते वह महल धू-धू करके जलने लगा। उसमें सोई हुई ४६६ रानियाँ तथा उनके सभी पीहर वाले जलकर भस्म हो गये।
देखिए, मोह और ईर्ष्या के प्रकोप का कितना भयंकर परिणाम आया ! राजा सिंहसेन और सोमारानी ने इस रौद्रध्यान के फलस्वरूप बुद्धिभ्रष्ट होकर कितने भयंकर पापकर्म बाँधे !
यही हाल लोभ, मद, मत्सर, ईर्ष्या, अहंकार आदि मनोविकारों के कुपित होने का है । इन सबके कुपित होने पर बुद्धि भ्रष्ट हो ही जाती है, जिसके कारण अपना और दूसरों का भी सर्वनाश हो जाता है।
बन्धुओ ! इसीलिए गौतम महर्षि ने कुपित जीवन से सावधान करते हुए कहा है
'चएइ बुद्धी कुवियं मणुस्सं ।' आप भी इन क्रोधादि मनोविकारों को कुपित होने से बचाइए और अपना जीवन शान्त और स्वस्थ बनाइए ।
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