________________
अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३३३ सेठानी भी कब चूकने वाली थी ! उसने कहा- “सेठसाहब ! सही फरमा रहे हैं। मैं भी यदि महाभारत पहले से सुन लेती और जान लेती कि पाँच पति कर लेने पर भी द्रौपदी सती कहलाई तो मैं भी ऐसा सुनहरा मौका क्यों चूकती ?"
सुनने वाले मन ही मन हँस रहे थे। पण्डितजी के तो होश ही गुम थे। इतने में सेठ का पुत्र बोला—“गुरुवर ! मैंने भी आपका महाभारत बहुत ही मनोयोगपूर्वक सुना है । सुनकर यही निर्णय किया है कि मुझे जल्दी से जल्दी अर्जुन बनना है। जो अर्जुन भीष्म जैसे पितामह, द्रोणाचार्य जैसे गुरु, महारथी कर्ण जैसे सहोदर, शल्य जैसे मामा और दुर्योधन जैसे सारे भाइयों को मौत के घाट उतारकर भी भक्तराज कहलाया, तब फिर मैं भक्तराज बनने में पीछे क्यों रहूँ ? पिताजी-माताजी को तो अफसोस है, देर से महाभारत सुनने का पर मेरे सामने तो अभी समय है.....।"
दूसरे पुत्र ने कहा-भाई की तरह मेरा भी श्रीकृष्ण बनने का विचार है। उन्होंने सब महारथियों को छलबल से मार गिराया, फिर भी कर्मयोगी कहलाए । बस, अधिक क्या कहूँ, मेरा तो वैसा ही कुछ बनने का विचार है.......।"
पिता, माता एवं दोनों भाइयों की बात सुनकर पुत्री ने कुन्ती बनने का विचार प्रगट किया।
पण्डितजी अपने श्रोताओं की बात सुनकर माथा ठोककर रह गए। सोचाश्रोता तो बड़े अच्छे मिले........!
वस्तुतः उपदेशक या वक्ता पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह उपदेश में बड़ी सावधानी बरते । अन्यथा कभी लेने के देने पड़ सकते हैं। कबीरजी ने तो स्पष्ट कह दिया है
मरख को समझावतां, ज्ञान गाँठ को जाय ।
कोयला होई न ऊजरो, नौ मन साबुन लाय ॥ मगध सम्राट श्रेणिक को नरक का बन्धन काटने के लिए भगवान महावीर ने ४ उपाय बताये थे, उनमें से एक उपाय यह था कि “अगर तुम्हारे नगर का काल सौकरिक कसाई, जो प्रतिदिन ५०० भैंसों का वध करता है, वध करना बन्द कर दे।"
श्रेणिक राजा को आशा की किरण मिल गई। उसने काल सौकरिक को बुलाकर बहुत समझाया, उस पर दण्डशक्ति का दबाव भी डाला, उसे कैद में भी डाल दिया गया, उसके हाथ-पैर बांधकर औंधा भी लटकाया गया, ताकि वह जीवहिंसा बन्द कर दे, किन्तु इतना करने के बावजूद भी वह मन से जीववध करने से न रुका। श्रेणिक का उसे समझाना-बुझाना, उपदेश और परामर्श देना व्यर्थ गया, एक प्रकार से अरण्यरोदन ही सिद्ध हुआ। यही हाल कपिला दासी के हाथ से दान दिलाने के सम्बन्ध में हुआ। वह भी कितना ही समझाने पर भी अपने कुसंस्कारों का त्याग न कर सकी। यही कारण है कि प्राचीनकाल में अनधिकारी को उपदेश देना निरर्थक प्रलाप समझा जाता था। मंत्र भी गुप्त रखे जाते थे । आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org